Thursday, September 21, 2006

मा ( Ma , mother )



यह दोनो कविताएँ मुझे प्रिय हैँ ! मा की ममतामयी लहर जब कविता के रूप मे बहती है तब आधुनिक काल हो या प्राचीन, हिन्दी भाषा की अमृत ~ गँगा यूँ ही प्रवाहित होती हुई , जन साधारण के हृदय को भावना के आवेग मे बहा ले जाती है.
सूरदास जी " कान्हा " की अद्भूत लीला का बखान कर रहे है ---
क़ान्हा , य़शोदा मैया से शिकायात करर्ते है अपने बडे भैया कि शरारत की !

" मैया मोही दाऊ बहुत खिजायॉ
ग़ोरे नन्द जसोगदा गोरी ,
तुम कत श्याम शरीर
चुटकी दै दै हसत बाल सब
सीख देत बलबीर !"

द्रिश्य नयनो के सामने उजागर है. शरारती बालाक की मनोहारी छवि, ममता से लिपटी बोली, मधुर मधुर नुपूर की छनकती किँकिणी समान प्रतीत होती है. मोहन के मुख को गुस्स से लाल हुआ देख, मा प्रेम - वश रीझती है -- कहती है ,
" सुनहु कान्ह, बलभद्र , जनमत हो को धूर्त ! सुर स्याम मोहे गो - धन की सौँ, हौँ माता तू पूत! "

मा ने कह दिया कि मै मा और तुम मेरे बेटे हो ! अपने बदमाश बडे भाई कि बात ना सुनो -- एक मा ही ये ममता समझ सकती है.

मुझे यह छवि ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है.
प्राचीन हिन्दी भाषा यही से चलकर आज २१ वी सदी तक आ गई है. परन्तु मा के प्रति प्रेम - वात्स्ल्य आज भी कुछ ऐसी ही रीत से कविता या दोहो मे कहा गया
सरदार कल्याण सिन्घ के दोहे भी मर्म कि बात कह रहे है ---

" बच्चे से पुछो जरा , सबसे अचछा कौन ? उँगली उठे उधर जिधर मा बैठी हो मौन !"
और उस से भी बडी बात इस राज कि बात बताते हुए लिखते ये कहना कि ---
" करना मा को खुश अगर , कहते लोग तमाम , रोशनआ अपने काम से, करो पिता क नाम !"

कितनी बडी सीख दे दी है यहाँ कल्याण जी ने
भारत की हर मा यही चाहती आयी है कि पाल पोस कर बालक को इस लायक बना दे कि वो बुलन्दीयो को छु ले !
- ऐसे काम करे कि जिससे मा के सुहाग कि लाली सूरज कि रोशनी सी जगमागने लगे
- सपूत हो तब मा छाया बनी रहती है , दीपक कि बाती बन कर जलती खपती रहती है , अपनी गृहस्थी मे व्यस्त रहती है, किसी अपेक्षा के बिना प्रयास करती है कि वो आगामी पीढी को सक्षम बनाये
-- आज हम जो यहा तक आये है उस के पीछे ऐसी , भारत की कितनी माता ओ का परिश्रम नीव मे पडे फौलाद और इस्पात कि सद्रश्य है. इसलिये मुझे नयी प्रणाली , नयी पीढी के लिये लिखे गये ये दोहे बहुत प्रभावित कर गये !
है दोहे छोटे छोटे मगर बात समझो तो बडी बात कहते है - आशा है कि आप सभी को इन से प्रेरणा व सम्बल मिलेगा जैसा मुझ को प्राप्त हुआ है.

भविष्य से आशा और भारतीया वान्ग्मय से ममता का अमर - सन्देशा !

सूरदास जी व सरदार कल्याण सिन्घजी दोनो ही हमारे लिये सेतु रच गये है ....
. रास्ता आगे हमे चलते चलते पार करना है !
ईति शुभम !
लावण्या

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