Tuesday, September 19, 2006

O Pegasus ...Divine ...



उच्चैश्रेवा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
समुद्र मँथन से निकले थे तुम
पँख फडफडा,उड चले स्वर्ग की ओर..
.हे,श्वेत अश्व,नुकीले नैन नक्श लिये,
विध्युत तरँगो पर विराजित चिर किशोर!
मखमली श्वेत व्याल, सिहर कर उडे...
श्वेत चँवर सी पूँछ, हवा मेँ फहराते ...
लाँघ कर प्राची दिश का ओर ~ छोर !
उच्चैश्रेव: तुम उड चले स्वर्ग की ओर !
इन्द्र सारथि मातलि,चकित हो,देख रहे
अपलक,नभ की ओर,स्वर्ग ~
गँगा, मँदाकिनी, मेँ कूद पडे,
बिखराते,स्वर्ण~ जल की हिलोर!
उच्चैश्रेवा तेज ~ पूँज, उड चले स्वर्ग की ओर!
दसोँ दिशा हुईँ उद्भभासित रश्मि से,
नँदनवन, झिलमिलाया उगा स्वर्ण भोर !
प्राची दिश मेँ, तुरँग का ,रह गया शोर!

अब भी दीख जाते हो तुम, नभ पर,
तारक समूह मेँ स्थिर खडे,अटल,
साधक हो वरदानदायी विजयी हो
आकाश ग़ँगा के तारोँसे लिपे पुते,
रत्न जटीत,उद्दात, विचरते चहुँ ओर!
उच्चैश्रेव: तुम उड चले स्वर्ग की ओर!~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ फिर हाजिर हूँ...........इस कविता के साथ: लावण्या

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