Sunday, October 01, 2006

2 Hindi Kavita -- Aaj ka Bharat


हर कोई चाहता है, हो मेरा एक नन्हा आशियाँ
काम मेरे पास हो, घर पर मेरे अधिकार हो,
पर, यही, मेर्रा और तेरा , क्योँ बन जाता,
सरहदोँ मेँ बँटा, शत्रुता का कट व्यवहार?
रोटी की भूख, इन्सानाँ को, चलाती है,
रात दिन के फेर मेँ पर, चक्रव्यूह कैसे
फँसाते हैँ , सबको, मृत्यु के पाश मेँ ?
कटुलोभ, लालच, स्वार्थ वृत्त्ति, अनहद,
आज का सच धन व मद का नहीँ रहता
कोई सँतुलन! मँ ही सच , मेरा धर्म ही सच
और,सारे धर्म, वे सारे, गलत हैँ !
क्योँ सोचता, ऐसा है आदमी ?
भूल कर, अपने से बडा सच?
मनोमन्थन है अब अनिवार्य,
सत्य का सामना, करो नर,
उठॉ बन कर नई आग,
जागो, बुलाता तुम्हेँ विहान,
काल आया अब समर का !
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लावण्या ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
स्व. पँडित नरेन्द्र शर्माकी कुछ काव्य पँक्तियाँ ~~~ ( प्रेषक :लावण्या )~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~रक्तपात से नहीँ रुकेगी, गति पर मानवता की
नु हाँ मानवता गिरि शिखर, गहन, गह्वर
सीखै पाशवत व्यअ छिपे सीमा नहीँ मनिज के, गिर कर उठने की क्षमता की ! जल आज हील रही नीँव राष्ट्र की,
क्यक्ति का स्वार्थ ना टस से मस !
राष्त्र के सिवा सभी स्वाधीन,
व्यक्ति स्वातँत्र अहम के वश!
राष्त्र की शक्ति सँपदा गौणॅ, मुख्य है,
व्यक्ति व्यक्ति का धन!नहीँ रग मोई अपनी जगह,
राष्त्र की दुखती है नस नस!
राष्त्र के रोम रोम मेँ आग,
बीन " नीरो " की बजती है-बुध्धिजीवी बन गया विदेह ,
राष्त्र की मिथिला जलती है !
क्राँतिकारी बलिदानी व्यक्ति,
बन बैठे हैँ कब से बुत !
कह रहे हैँ दुनिया के लोग,
कहूँ हैँ भारत के सुत ?
क्योँ ना हम स्वाभिमान से जीयेँ?
चुनौती है, प्रत्येक दिवस !

" जन क्राँति जगाने आई है, उठ हिँदू, उठ मुसलमान-
सँकीर्ण भेद त्याग, उठ, महादेश के महा प्राणॅ !
क्या पूरा हिन्दुस्तान, न यह ? क्या पूरा पाकिस्तान नहीँ ?
मैँ हिँदू हूँ, तुम मुसलमान, पर क्या दोनोँ इन्सान नहीँ ?

" नहीँ आज आस्चर्य हुआ, क्योँ जीवन मुझे प्रवास ?
हँकार की गाँठ रही, निज पँसारी के हाथ !
हो भर्ष्ट न कुछ मिट्टी मेँ मिल,केवल जाए अँधकार
,मेरे अणुण्उ मेँ दिव्य बीज,
जिसमेँ किसलय से छिपे भाव !
पर, जो हीरक से भी कठोर !

यदि होना ही है अँधकार,दो, प्राण मुझे वरदान,
खुलेँ,चिर आत्म बोध के बँद द्वार!
यदि करना ही विष पान मुझे,
कल्वाण रुप हूँ शिव समान,
दो प्राण यही वरदान मुझे!

तिनकोँ से बनती सृष्टि,
सीमाओँ मेँ पलती रहती,
वह जिस विराट का अँश,
उसी के झोँकोँ को , फिर फिर सहती
हैँ तिनकोँ मेँ तूफान चुपे, ज्योँ, शमी वृक्ष मेँ छिपी अगन !

स्व. पँडित नरेन्द्र शर्माकी कुछ काव्य पँक्तियाँ प्रेषक : लावण्या

2 Comments:

Blogger Akanksha Patra said...

a very inspiring poem !

9:34 PM  
Blogger Unknown said...

very precious poem

4:34 AM  

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