"प्रयाग" - PRAYAG
( this rare B /W photo was taken at Allahabad or " Prayag " as it is called --
In this photo are --
in the center is Sree Sumitra Nandan pant ji ( famous Chhayawadi Kavi ) ,
behind him in white is Sree Harivansh Rai BECHCHAN ji ( father of legendry actor sree Amitabh Bachchan ji )
&
in black coat is my father -- Late Pandit Narendra Sharma )
"प्रयाग" -
(यह श्रद्धेय पंडित नरेन्द्र शर्मा की एक दुर्लभ कविता है
जो मैंने 'सरस्वती हीरक-जयन्ती विशेषांक १९००-१९५९' से साभार ली है।
…लक्ष्मीनारायण गुप्त)
१मैं बन्दी बन्दी मधुप, और यह गुंजित मम स्नेहानुराग,
संगम की गोदी में पोषित शोभित तू शतदल प्रयाग !
विधि की बाहें गंगा-यमुना तेरे सुवक्ष पर कंठहार,
--लहराती आतीं गिरि-पथ से, लहरों में भर शोभा अपार !
देखा करता हूँ गंगा में उगता गुलाब-सा अरुण प्रात,
यमुना की नीली लहरों में नहला तन ऊठती नित्य रात !
गंगा-यमुना की लहरों में कण-कण में मणि नयनाभिराम
बिखरा देती है साँझ हुए नारंगी रँग की शान्त शाम !
तेरे प्रसाद के लिए, तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ
पल्लव के रुचिर किरीट पहन आता अब भी ऋतुराज वहाँ !
कर दैन्य-दुःख-हेमन्त-अन्त वैभव से भर सब शुष्क वृन्त
हर साल हर्ष के ही समान सुख-हर्ष-पुष्प लाता वसन्त !
स्वर्णिम मयूर-से नृत्य करते उपवन में गोल्ड मोहर,
कुहुका करती पिक छिप छिप कर तरुओं में रत प्रत्येक प्रहर !
भर जाती मीठी सौरभ-से कड़वे नीमों की डाल डाल,
लद जाते चलदल पर असंख्य नवदल प्रवाल के जाल लाल !
'मधु आया', कहते हँस प्रसून, पल्लव 'हाँ' कह कह हिल जाते
आलिंगन भर, मधु-गंध-भरी बहती समीर जब दिन आते !
शुचि स्वच्छ और चौड़ी सड़कों के हरे-भरे तेरे घर में,
सबको सुख से भर देता है ऋतुपति पल भर के अन्तर में !
मधु के दिन पर कितने दिन के ! -- आतप में तप जल जाता सब
तू सिखलाता, कैसे केवल पल भर का है जग का वैभव !
इस स्वर्ण-परीक्षा से दीक्षा ले ज्ञानी बन
मन-नीरजात,शीतल हो जाता,
आती है जब सावन की मुख-सरस रात !
जब रहा-सहा दुख धुल जाता,
मन शुभ्र शरद्-सा खिल जाता
यों दीपमिलिका में आलोकित कर पथ विमल शरद् आता !
ऋतुओं का पहिया इसी तरह घूमा करता
प्रतिवर्ष यहाँ,तेरे प्रसाद के लिए तीर्थ !
आते थे दानी हर्ष जहाँ !खुसरू का बाग सिखाता है,
है धूप-छाँह-सी यह माया,वृक्षों के नीचे लिख जाती है
यों ही नित चंचल छाया !
वह दुर्ग !--जहाँ उस शान्ति-स्तम्भ में मूर्तिमान
अब तक अशोक,था गर्व कभी, पर आज जगाता है
उर उर में क्षोभ-शोक !तू सीख त्याग, तू सीख प्रेम,
तू नियम-नेम ले अज्ञानी--क्या पत्थर पर
अब तक अंकित यह दया-द्रवित कोमल वाणी?
--जिसमें बोले होंगे गद्गद वे शान्ति-स्नेह के अभिलाषी
--दृग भर भर शोकाकुल अशोक; सम्राट्,
भिक्षु औ' संन्यासी !उस पत्थर अंकित है क्या ?
क्या त्याग, शान्ति, तप की वाणी ?
जिससे सीखें जीवन-संयम, सर्वत्र-शान्ति सब अज्ञानी !
संदेश शान्ति का ही होगा, पर अब जो कुछ वह लाचारी
--बन्दी बल-हीन गुलामों की जड़मूक बेबसी बेचारी !
दुख भी हलका हो जाता है अब देख देख परिवर्तन-क्रम,
फिर कभी सोचने लगता हूँ यह जीवन सुख-दुख का संगम !
बेबसी सदा की नहीं, सदा की नहीं गुलामी भी
मेरी,हे काल क्रूर, सुन ! कभी नहीं क्या करवट बदलेगी तेरी ?
२यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट,
मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट !
--क्या इसके अजर-पत्र पर चढ़ जीवन जीतेगा महाप्रलय ?
कह, जीवन में क्षमता है यदि तो तम से हो प्रकाश निर्भय !
मैं भी फिर नित निर्भय खोजूँ शाश्वत प्रकाश अक्षय जीवन,
निर्भय गाऊँ, मैं शान्त करूँ इस मृत्युभित जग का क्रन्दन !
है नये जन्म का नाम मृत्यु, है नई शक्ति का नाम ह्रास,
--है आदि अन्त का, अन्त आदि का यों सब दिन क्रम-बद्ध ग्रास !
प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला,
था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला !
कवि-हृदय मिला, मन-मुकुल खिला, अर्पित है जो श्री चरणों में,
पर हो न सकेगा अभिनन्दन मेरे इन कृत्रिम वर्णों में !
ये कृत्रिम, तू सत्-पृकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज !
क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !
दे शुभाशीस, हे पुण्यधाम !, वाणी कल्याणी हो प्रकाम--स्वीकृत हो अब श्री चरणों में बन्दी का यह अन्तिम प्रणाम !तेरे चरणों में शीश धरे आये होंगे कितने नरेन्द्र,
कितने ही आये, चले गये, कुछ दिन रह अभिमानी महेन्द्र !
मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज !
क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अन्न्त गुण-गान आज !.
..नरेन्द्र शर्मा...१९३६
In this photo are --
in the center is Sree Sumitra Nandan pant ji ( famous Chhayawadi Kavi ) ,
behind him in white is Sree Harivansh Rai BECHCHAN ji ( father of legendry actor sree Amitabh Bachchan ji )
&
in black coat is my father -- Late Pandit Narendra Sharma )
"प्रयाग" -
(यह श्रद्धेय पंडित नरेन्द्र शर्मा की एक दुर्लभ कविता है
जो मैंने 'सरस्वती हीरक-जयन्ती विशेषांक १९००-१९५९' से साभार ली है।
…लक्ष्मीनारायण गुप्त)
१मैं बन्दी बन्दी मधुप, और यह गुंजित मम स्नेहानुराग,
संगम की गोदी में पोषित शोभित तू शतदल प्रयाग !
विधि की बाहें गंगा-यमुना तेरे सुवक्ष पर कंठहार,
--लहराती आतीं गिरि-पथ से, लहरों में भर शोभा अपार !
देखा करता हूँ गंगा में उगता गुलाब-सा अरुण प्रात,
यमुना की नीली लहरों में नहला तन ऊठती नित्य रात !
गंगा-यमुना की लहरों में कण-कण में मणि नयनाभिराम
बिखरा देती है साँझ हुए नारंगी रँग की शान्त शाम !
तेरे प्रसाद के लिए, तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ
पल्लव के रुचिर किरीट पहन आता अब भी ऋतुराज वहाँ !
कर दैन्य-दुःख-हेमन्त-अन्त वैभव से भर सब शुष्क वृन्त
हर साल हर्ष के ही समान सुख-हर्ष-पुष्प लाता वसन्त !
स्वर्णिम मयूर-से नृत्य करते उपवन में गोल्ड मोहर,
कुहुका करती पिक छिप छिप कर तरुओं में रत प्रत्येक प्रहर !
भर जाती मीठी सौरभ-से कड़वे नीमों की डाल डाल,
लद जाते चलदल पर असंख्य नवदल प्रवाल के जाल लाल !
'मधु आया', कहते हँस प्रसून, पल्लव 'हाँ' कह कह हिल जाते
आलिंगन भर, मधु-गंध-भरी बहती समीर जब दिन आते !
शुचि स्वच्छ और चौड़ी सड़कों के हरे-भरे तेरे घर में,
सबको सुख से भर देता है ऋतुपति पल भर के अन्तर में !
मधु के दिन पर कितने दिन के ! -- आतप में तप जल जाता सब
तू सिखलाता, कैसे केवल पल भर का है जग का वैभव !
इस स्वर्ण-परीक्षा से दीक्षा ले ज्ञानी बन
मन-नीरजात,शीतल हो जाता,
आती है जब सावन की मुख-सरस रात !
जब रहा-सहा दुख धुल जाता,
मन शुभ्र शरद्-सा खिल जाता
यों दीपमिलिका में आलोकित कर पथ विमल शरद् आता !
ऋतुओं का पहिया इसी तरह घूमा करता
प्रतिवर्ष यहाँ,तेरे प्रसाद के लिए तीर्थ !
आते थे दानी हर्ष जहाँ !खुसरू का बाग सिखाता है,
है धूप-छाँह-सी यह माया,वृक्षों के नीचे लिख जाती है
यों ही नित चंचल छाया !
वह दुर्ग !--जहाँ उस शान्ति-स्तम्भ में मूर्तिमान
अब तक अशोक,था गर्व कभी, पर आज जगाता है
उर उर में क्षोभ-शोक !तू सीख त्याग, तू सीख प्रेम,
तू नियम-नेम ले अज्ञानी--क्या पत्थर पर
अब तक अंकित यह दया-द्रवित कोमल वाणी?
--जिसमें बोले होंगे गद्गद वे शान्ति-स्नेह के अभिलाषी
--दृग भर भर शोकाकुल अशोक; सम्राट्,
भिक्षु औ' संन्यासी !उस पत्थर अंकित है क्या ?
क्या त्याग, शान्ति, तप की वाणी ?
जिससे सीखें जीवन-संयम, सर्वत्र-शान्ति सब अज्ञानी !
संदेश शान्ति का ही होगा, पर अब जो कुछ वह लाचारी
--बन्दी बल-हीन गुलामों की जड़मूक बेबसी बेचारी !
दुख भी हलका हो जाता है अब देख देख परिवर्तन-क्रम,
फिर कभी सोचने लगता हूँ यह जीवन सुख-दुख का संगम !
बेबसी सदा की नहीं, सदा की नहीं गुलामी भी
मेरी,हे काल क्रूर, सुन ! कभी नहीं क्या करवट बदलेगी तेरी ?
२यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट,
मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट !
--क्या इसके अजर-पत्र पर चढ़ जीवन जीतेगा महाप्रलय ?
कह, जीवन में क्षमता है यदि तो तम से हो प्रकाश निर्भय !
मैं भी फिर नित निर्भय खोजूँ शाश्वत प्रकाश अक्षय जीवन,
निर्भय गाऊँ, मैं शान्त करूँ इस मृत्युभित जग का क्रन्दन !
है नये जन्म का नाम मृत्यु, है नई शक्ति का नाम ह्रास,
--है आदि अन्त का, अन्त आदि का यों सब दिन क्रम-बद्ध ग्रास !
प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला,
था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला !
कवि-हृदय मिला, मन-मुकुल खिला, अर्पित है जो श्री चरणों में,
पर हो न सकेगा अभिनन्दन मेरे इन कृत्रिम वर्णों में !
ये कृत्रिम, तू सत्-पृकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज !
क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !
दे शुभाशीस, हे पुण्यधाम !, वाणी कल्याणी हो प्रकाम--स्वीकृत हो अब श्री चरणों में बन्दी का यह अन्तिम प्रणाम !तेरे चरणों में शीश धरे आये होंगे कितने नरेन्द्र,
कितने ही आये, चले गये, कुछ दिन रह अभिमानी महेन्द्र !
मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज !
क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अन्न्त गुण-गान आज !.
..नरेन्द्र शर्मा...१९३६
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