Friday, December 01, 2006

रात चाँद और मैँ : [२ द्रश्य]



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रात चाँद और मैँ : [२ द्रश्य]
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[१]
" एक पग उठा था मेरा परँतु,
मानवता की थी एक लम्बी छलाँग !
रात थी, चाँद था, और सन्नाटे मेँ,
श्वेत सरँक्षक वस्त्र मेँ
काँच की खिडकी से,
पृथ्वी को देखता, "मैँ! "
[ अँतरिक्ष यात्री : श्री नील आर्मस्ट्रोँग के उदगार
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"हे तरुवर अशोक के,
हरो तुम मेरा भी शोक!
करो सार्थक नाम अपना,
दर्शन देँ, प्रभु श्री राम!
हे गगन के चँद्रमा,
हैँ मेरे सूर्य कहाँ ?
सूर्य वँश के सूर्य राम,
बतला दो हैँ कहाँ ? "
अशोक वाटिका,रात्रि,
चाँद, रात थे साक्षी,
सीताजी के प्रश्नेँमेँ,
' मैँ ' भाव हुआ विलीन!
[ श्री सीताजी के उदगार ]
-- लावण्या

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