Thursday, December 07, 2006

स्व. पँडित नरेन्द्र शर्मा


( Sushree Lata Mangeshker garlanding Pt. Narendra Sharma )
स्व. पँडित नरेन्द्र शर्मा
प्रेषक : लावण्या
" नारी कृत्या, मृउत्य, उर्वशी,जननी, जाया, माया,
क्षीरसिँधु, धारिणी, तारिणी, महाशून्य की काया !
रुतान्रुता, चिद् -अचिद्-शक्ति, वह नीरा नाल कमलिनी,
वह हिरण्यागर्भा है जिसमेँ सब ब्रह्माण्ड समाया "
स्व. पँडित नरेन्द्र
रक्तपात से नहीँ रुकेगी, गति पर मानवता की,
मानवता गिरि शिखर, गहन, गह्वर
सीखै पाशवता,सीमा नहीँ मनुज के,
गिर कर उठनेकी क्षमता की !
आज हील रही नीँव राष्ट्र की,व्यक्क्ति का स्वार्थ ना टस से मस !
राष्ट्र के सिवा सभी स्वाधीन, व्यक्ति स्वातँत्र अहम के वश!
राष्ट्र की शक्ति सँपदा गौणॅ, मुख्य है, व्यक्ति व्यक्ति का धन!
नहीँ रग कोई अपनी जगह, राष्ट्रकी दुखती है नस नस!
राष्ट्र के रोम रोम मेँ आग, बीन "नीरो " की बजती है-
बुध्धिजीवी बन गया विदेह, राष्ट्र की मिथिला जलती है !
क्राँतिकारी बलिदानी व्यक्ति, बन बैठे हैँ कब से बुत !
कह रहे हैँ दुनिया के लोग, कहाँ हैँ भारत के सुत ?
क्योँ ना हम स्वाभिमान से जीयेँ? चुनौती है, प्रत्येकदिवस !
" जन क्राँति जगाने आई है, उठ हिँदू, उठ मुसलमान-
सँकीर्ण भेद त्याग, उठ, महादेश के महा प्राणॅ !
क्या पूरा हिन्दुस्तान, न यह ?
क्या पूरा पाकिस्तान नहीँ ?
मैँ हिँदू हूँ, तुम मुसलमान, पर क्या दोनोँ इन्सान नहीँ ?
" नहीँ आज आस्चर्य हुआ, क्योँ जीवन मुझे प्रवास ?
अहँकार की गाँठ रही, निज पँसारीके हाथ ! "
" हो भर्ष्ट न कुछ मिट्टी मेँ मिल,केवल जल जाए अँधकार,
मेरे अणु अणु मेँ दिव्य बीज, जिसमेँ किसलय से छिपे भाव !
पर, जो हीरक से भी कठोर !
यदि होना ही है अँधकार, दो, प्राण मुझे वरदान,
खुलेँ,चिर आत्म बोध के बँद द्वार!
यदि करना ही विष पान मुझे,कल्वाण रुप हूँ शिव समान,
दो प्राण यही वरदान मुझे! "
तिनकोँ से बनती सृष्टि, सीमादquot;ँमेँ पलती रहती,
वह जिस विराट का अँश, उसी के झोँकोँ को ,
फिर फिर सहती हैँ तिनकोँ मेँ तूफान छिपे,
ज्योँ, शमी वृक्ष मेँ छिपी अगन !

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