गुलमोहर की छाँवमेँ !
गुलमोहर की छाँवमेँ !
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वह बैठी रहती थी, हर साँझ,
तकती बाट प्रियतम की , चुपचाप
गुलमोहर की छाँव मेँ !
जेठ की तपती धूप सिमट जाती थी,
उसके मेँहदी वाले पैँरोँ पर
बिछुए के नीले नँग से, खेला करती थी
पल पल फिर, झिडक देती ...
झाँझर की जोडी को..
अपनी नर्म अँगुलीयोँ से
कुछ बरस पहले यही पेड हरा भरा था,
नया नया था !
ना जाने कौन कर गया
उस पर, इतनी चित्रकारी ?
कौन दे गया लाल रँग ?
खिल उठे हजारोँ गुलमोहर
पेड मुस्कुराने लगा
दquot;रगीत गुनगुनाने लगा ..
नाच उठे मोरोँ के जोड
उठाये नीली ग्रीवा थिरक रहे माटी पर
शान पँखोँ पे फैलाये !
शहेरोँ की बस्ती मेँ"गुलमोहर एन्क्लेव " ..
पथ के दोनो दquot;र घने लदे हुए ,
कई सारे पेड
नीली युनिफोर्म मेँ सजे,स्कूल बस के इँतजार मेँ
शिस्त बध्ध, बस्ता लादे,
मौन खडे........बालक !.
..........सभ्य तो हैँ !!
पर,गुलमोहर के सौँदर्य से
अनभिज्ञ से हैँ ...!!
--लावण्या
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