उडान
उडान
गीत बनकर गूँजते हैँ, भावोँ के उडते पाख!
कोमल किसलय, मधुकर गुँजन,सर्जन के हैँ साख!
मोहभरी, मधुगूँज उठ रही,कोयल कूक रही होगी-
प्यासी फिरती है, गाती रहती है,कब उसकी प्यास बुझेगी?
कब मक्का सी पीली धूप,हरी अँबियोँ से खेलेगी?
कब नीले जल मेँ तैरती मछलियाँ, अपना पथ भूलेँगीँ ?
क्या पानी मेँ भी पथ बनते होँगेँ ?होते होँगे,बँदनवार ?
क्या कोयल भी उडती होगी,निश्चिन्त गगन पथ निहार ?
मानव भी छोड धरातल, उपर उठना चाहता है -
तब ना होँगे नक्शे कोई, ना होँगे कोई और नियम !
कवि की कल्पना के पाँख उडु उडु की रट करते हैँ!
दूर जाने को प्राण, अकुलाये से रहते हैँ
हैँ बटोही, व्याघ्र, राह मेँ घेरके बैठे जो पथ -
ना चाहते वो किसी का भी भला न कभी !
याद कर नीले गगन को, भर ले श्वास उठ जा,
याद कर नीले गगन को, भर ले श्वास उठ जा,
उडता जा, "मन -पँखी" अकुलाते तेरे प्राण!
भूल जा उस पेड को, जो था बसेरा तेरा, कल को,
भूल जा , उस चमनको जहाँ बसाया था तूने डेरा -
ना डर, ना याद कर, ना, नुकीले तीर को !
जो चढाया ब्याघने,खीँचे, धनुष के बीच!
सन्न्` से उड जा !छूटेगा तीर भी नुकीला -
गीत तेरा फैल जायेगा,धरा पर गूँजता,
तेरे ही गर्म रक्त के साथ, बह जायेगा !
एक अँतिम गीत ही बस तेरी याद होगी !
याद कर उस गीत को, उठेगी टीस मेरी !
"मन -पँछी "तेरे ह्रदय के भाव कोमल,
हैँ कोमल भावनाएँ, है याद तेरी, विरह तेरा,
आज भी, नीलाकाश मेँ, फैला हुआ अक्ष्क्षुण !
-- लावण्या
12 Comments:
Lavanyaji
Poem as well as picture...beautiful
my compliments to you
लावण्या जी
सुन्दर रचना है...मन की उडान की
मेरे शब्दों में
"मैं भी उडना चाहता हूं..परिन्दों को देख कर नही.. आसमां का खुलापन देख कर"
ma'm,
kavi ke prashan uske uttar se jyaada vistarit hain...jo ki vastav mein ek hi hai!!!sunderta hai prashono ke bhitar chipi us akansha ki jo manav vikas ko nayi disha de sakta hai...
लावण्या दी,
बहुत सुन्दर रचना है.
बहुत सुन्दर! दिनों दिन आपकी कविताओं में और भी निखार आता जा रहा है।
घुघूती बासूती
Harshad bhai,
Thank you for your valued comments. They encourage my creative efforts.
& I treasure them.
warm Rgds,
L
सच कहा मोहिन्दरजी आपने,
खुला हुआ, इतना विशाल आसमान यही भाव मनमेँ ले आता है -
टिप्पणी के लिये आभार !
स -स्नेह,
लावण्या
haan, Aditi,
manav samaj, aise hee vichar ke pankh laga ker, sadiyon ki doori paar ker ke , yehan tak pahuncha hai ..aage aur bhee na jane kya kya hoga !
Manzilein aur bhee hain ...
sa - sneh,
L
रजनी भाभी जी ,
हेलो ! कैसी हैँ आप ?
आप आईँ मेरे ब्लोग पर उसकी खुशी है ! :-)
आती रहियेगा, अच्छा लगा आपका साथ !
बहोत स्नेह के साथ,
लावण्या
घुघूती बासूती जी,
नमस्ते!
आपको कविता पसँद आई - उसकी खुशी है -परँतु, एक बात बतलाउँ ? ये तो करीब ३०+ वर्ष पहले लिखी थी ! ;-)
पुरानी डायरी के पन्नोँ मेँ सहेजी, ऐसी कई बातेँ, अब प्रस्तुत कर रही हूँ --
आशा है, आप को पसँद आयेँगी --
स - स्नेह
लावण्या
बहुत खूब है ये रचना गगन का विस्तार पंछियों जैसी उड़ान बहुत खूब।
भावना जी,
जी हाँ ....गगन की असीमितता देखकर ही कुछ जीवोँ ने पँछी बनके उडना सीखा होगा -
हम कविता के सहारे भी उड लेते हैँ तब भी वही आकाश का खुलापन हमेँ जगह दे देता है, है ना ?
आपने मेरी कविता को सराहा उसके लिये, शुक्रिया !
स स्नेह,
लावण्या
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