Wednesday, April 04, 2007

उडान


उडान

गीत बनकर गूँजते हैँ, भावोँ के उडते पाख!

कोमल किसलय, मधुकर गुँजन,सर्जन के हैँ साख!

मोहभरी, मधुगूँज उठ रही,कोयल कूक रही होगी-

प्यासी फिरती है, गाती रहती है,कब उसकी प्यास बुझेगी?

कब मक्का सी पीली धूप,हरी अँबियोँ से खेलेगी?

कब नीले जल मेँ तैरती मछलियाँ, अपना पथ भूलेँगीँ ?

क्या पानी मेँ भी पथ बनते होँगेँ ?होते होँगे,बँदनवार ?

क्या कोयल भी उडती होगी,निश्चिन्त गगन पथ निहार ?

मानव भी छोड धरातल, उपर उठना चाहता है -

तब ना होँगे नक्शे कोई, ना होँगे कोई और नियम !

कवि की कल्पना के पाँख उडु उडु की रट करते हैँ!

दूर जाने को प्राण, अकुलाये से रहते हैँ

हैँ बटोही, व्याघ्र, राह मेँ घेरके बैठे जो पथ -

ना चाहते वो किसी का भी भला न कभी !
याद कर नीले गगन को, भर ले श्वास उठ जा,

उडता जा, "मन -पँखी" अकुलाते तेरे प्राण!

भूल जा उस पेड को, जो था बसेरा तेरा, कल को,
भूल जा , उस चमनको जहाँ बसाया था तूने डेरा -

ना डर, ना याद कर, ना, नुकीले तीर को !

जो चढाया ब्याघने,खीँचे, धनुष के बीच!

सन्न्` से उड जा !छूटेगा तीर भी नुकीला -

गीत तेरा फैल जायेगा,धरा पर गूँजता,

तेरे ही गर्म रक्त के साथ, बह जायेगा !

एक अँतिम गीत ही बस तेरी याद होगी !

याद कर उस गीत को, उठेगी टीस मेरी !

"मन -पँछी "तेरे ह्रदय के भाव कोमल,

हैँ कोमल भावनाएँ, है याद तेरी, विरह तेरा,
आज भी, नीलाकाश मेँ, फैला हुआ अक्ष्क्षुण !

-- लावण्या

12 Comments:

Blogger Harshad Jangla said...

Lavanyaji

Poem as well as picture...beautiful

my compliments to you

8:44 PM  
Blogger Mohinder56 said...

लावण्या जी
सुन्दर रचना है...मन की उडान की
मेरे शब्दों में
"मैं भी उडना चाहता हूं..परिन्दों को देख कर नही.. आसमां का खुलापन देख कर"

10:36 PM  
Blogger Unknown said...

ma'm,
kavi ke prashan uske uttar se jyaada vistarit hain...jo ki vastav mein ek hi hai!!!sunderta hai prashono ke bhitar chipi us akansha ki jo manav vikas ko nayi disha de sakta hai...

12:27 AM  
Blogger रजनी भार्गव said...

लावण्या दी,
बहुत सुन्दर रचना है.

6:10 AM  
Blogger ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर! दिनों दिन आपकी कविताओं में और भी निखार आता जा रहा है।
घुघूती बासूती

10:14 AM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Harshad bhai,
Thank you for your valued comments. They encourage my creative efforts.
& I treasure them.
warm Rgds,
L

12:50 PM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

सच कहा मोहिन्दरजी आपने,
खुला हुआ, इतना विशाल आसमान यही भाव मनमेँ ले आता है -
टिप्पणी के लिये आभार !
स -स्नेह,
लावण्या

12:52 PM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

haan, Aditi,
manav samaj, aise hee vichar ke pankh laga ker, sadiyon ki doori paar ker ke , yehan tak pahuncha hai ..aage aur bhee na jane kya kya hoga !
Manzilein aur bhee hain ...
sa - sneh,
L

12:54 PM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

रजनी भाभी जी ,
हेलो ! कैसी हैँ आप ?
आप आईँ मेरे ब्लोग पर उसकी खुशी है ! :-)
आती रहियेगा, अच्छा लगा आपका साथ !
बहोत स्नेह के साथ,
लावण्या

12:56 PM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

घुघूती बासूती जी,
नमस्ते!
आपको कविता पसँद आई - उसकी खुशी है -परँतु, एक बात बतलाउँ ? ये तो करीब ३०+ वर्ष पहले लिखी थी ! ;-)
पुरानी डायरी के पन्नोँ मेँ सहेजी, ऐसी कई बातेँ, अब प्रस्तुत कर रही हूँ --
आशा है, आप को पसँद आयेँगी --
स - स्नेह
लावण्या

12:59 PM  
Blogger Dr.Bhawna Kunwar said...

बहुत खूब है ये रचना गगन का विस्तार पंछियों जैसी उड़ान बहुत खूब।

1:21 AM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

भावना जी,
जी हाँ ....गगन की असीमितता देखकर ही कुछ जीवोँ ने पँछी बनके उडना सीखा होगा -
हम कविता के सहारे भी उड लेते हैँ तब भी वही आकाश का खुलापन हमेँ जगह दे देता है, है ना ?
आपने मेरी कविता को सराहा उसके लिये, शुक्रिया !
स स्नेह,
लावण्या

12:24 AM  

Post a Comment

<< Home