Thursday, December 07, 2006

जीवँत ~ प्रकृति


खिले कँवल से,
लदे ताल पर,
मँडराता मधुकर~
मधु का लोभी.
गुँजित पुरवाई,
बहती प्रतिक्षण
चपल लहर,
हँस, सँग ~
सँग, हो, ली !
एक बदलीने
झुक कर पूछा,
" दquot; मधुकर,
तू , गुनगुन क्या गाये?
"छपक छप -
मार कुलाँचे,
मछलियाँ,
कँवल पत्र मेँ,
छिप छिप जायेँ !
"हँसा मधुप, रस का वो लोभी,
बोला,
" कर दो, छाया,बदली रानी !
मैँ भी छिप जाऊँ,
कँवल जाल मेँ,
प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !"
" रे धूर्त भ्रमर,
तू,रस का लोभी --
फूल फूल मँडराता निस दिन,
माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ?
गरज रहे घन,
ना मैँ तेरी सहेली!
"टप टप, बूँदोँ ने
बाग ताल, उपवन पर,
तृण पर, बन पर,
धरती के कण क़ण पर,
अमृत रस बरसाया,
निज कोष लुटाया
अब लो, बरखा आई,
हरितमा छाई !
आज कँवल मेँ कैद
मकरँद की, सुन लो
प्रणय ~ पाश मेँ बँधकर,
हो गई, सगाई !!

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