Thursday, December 07, 2006

पाबलो नेरुदा : " दोपहर के अलसाये पल "


" दोपहर के अलसाये पल "
तुम्हारी समँदर -सी गहरी आँखोँ मेँ,
फेँकता पतवार मैँ,
उनीँदी दोपहरी मेँ -
उन जलते क्षणोँ मेँ,
मेरा ऐकाकीपन , घना होकर,
जल उठता है -
डूबते माँझी की तरहा -
लाल दहकती निशानीयाँ,
तुम्हारी खोई आँखोँ मेँ,
जैसे "दीप ~ स्तँभ" के समीप,
मँडराता जल !

मेरे दूर के सजन,
तुम ने अँधेरा ही रखा
तुम्हारे हाव भावोँ मेँ उभरा यातनोँ का किनारा
--- अलसाई दोपहरी मेँ,
मैँ, फिर उदास जाल फेँकता हूँ --
उस दरिया मेँ , जो
तुम्हारे नैया से नयनोँ मेँ कैद है !

रात के पँछी, पहले उगे तारोँ को,
चोँच मारते हैँ -ढर वे,
मेरी आत्मा की ही तरहा,
ढर दहक उठते हैँ !
रात, अपनी परछाईँ की ग़्होडी पर
सवार दौडती है ,
अपनी नीली फुनगी के
रेशम - सी लकीरोँ को छोडती हुई !

नेफताली रीकर्डो रेइस या पाबलो नेरुदा का जन्म पाराल , चीले, आर्जेन्टीना मेँ १९०४ के समय मेँ हुआ था.वे दक़्शिण अमरीका भूखँड के सबसे प्रसिध्ध कवि हैँ. उन्हे भारत के श्री रवीम्द्र नाथ ठाकुर की तरह भाषा के लिये,नोबल इनाम सन्` १९७१ मेँ मिला था.
पाबलो नेरुदा ने, अपने जीवन मेँ कई यात्राएँ कीँ- रुस, चीन, पूर्वी युरोप की यात्रा के बाद उनका सन्` १९७३ मेँ निधन हो गया था.
उनका कविता के लिये कहना था कि, " एक कवि को भाइचारे ढर एकाकीपन के बीच एवम्` भावुकता ढर कर्मठता के बीच, व अपने आप से लगाव ढर समूचे विश्वसे सौहार्द व कुदरत के उद्घघाटनोँ के मध्य सँतुलित रह कर रचना करना जरूरी होता है ढर वही कविता होती है -- "
( यह मेरा एक नम्र प्रयास है ~~ नेरुदा के काव्य का अनुवाद प्रस्तुत है )

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