प्रलय
देख रही मैँ, उमड रहा है, झँझावात प्रलय का !
निज सीमित व्यक्तित्त्व के पार,उमड घुमड, गर्जन तर्जन!
हैँ वलयोँ के द्वार खुले,लहराते नीले जल पर !
सागर के वक्षसे उठता, महाकाल का घर्घर स्वर,
सृष्टि के प्रथम सृजन सा, तिमिराच्छादीत महालोक
बूँद बनी है लहर यहाँ, लहरोँ से उठता पारावार,
ज्योति पूँज सूर्य उद्`भासित, बादलके पट से झुककर
चेतना बनी है नैया, हो लहरोँके वश, बहती जाती ~
क्षितिज सीमा जो उजागर, काली एक लकीर महीन!
वही बनेगी धरा, हरी, वहीँ रहेगी
, वसुधा, अपरिमित!
, वसुधा, अपरिमित!
गा रही हूँ गीत आज मैँ, प्रलय ~ प्रवाह निनादित~
बजते पल्लव से महाघोष, स्वर, प्रकृति, फिर फिर दुहराती!
~~ लावण्या
8 Comments:
अच्छी कविता, शब्दो का सुन्दर प्रयोग
बहुत प्र्भावित हूं आपकी रचना पढ्कर.. प्रवाह में बहती गई,..
Sundar Rachna Hai. Bahut Abhinandan.
I wish I could write in Hindi !!!
प्रमेन्द्र जी,
उर्फ "महाशक्ति" - नाम बडा शक्तिशाली है आपके ब्लोग का!
धन्यवाद! कविता की सराहना के लिये -
स स्नेह,
लावण्या
प्रियँकर जी,
आपको भी मेरे बहोत धन्यवाद! कविता की सराहना के लिये -
मेरे स्व. पिता पँडित नरेन्द्र शर्मा जी छायावादी शैली के सफल कवि रहे हैँ -
सो, आपकी प्रतिक्रिया से हर्ष हुआ मुझे !
स स्नेह,
लावण्या
हैलो, मन्याजी,
आपको कविता पसँद आई - धन्यवाद!
आपका ब्लोग भी देखा श्री कृष्णजी पर लिखी कविता व कन्या भृण पर लिखी विशेष पसँद आईँ हैँ
लिखती रहिये ..
स्स स्नेह,
लावण्या
Harshad bhai,
aapko kavita achee lagee - mujhe bhee khushee huee.
aapki comments ka shukriya !
Rgds,
L
Hello Madam,
उमंड़ते हुऐ दृष्याव्लोकन की प्रलय धारणा
अत्यंत विशिष्ट अर्थ को संकेत करती है…
बहुत अच्छा…सार्थक चित्रण!!
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