Monday, February 05, 2007

कुँती / पृथा - भाग - ९ - पारस - स्पर्श



कुँती / पृथा
दीन दवालु बिरदु सँभारी हरहु नाथ मम सँकट भारी ,मँगल भवन अमँगलहारी, उमा सहित जेहि जपत पुरारि द्रवहु सो दसरथ, अजिर विहारी !
बोलो,राम कृष्ण राम कृष्ण हरि हरि , राम कृष्ण राम कृष्ण हरि हरि

यदुवँश के शूरसेन राजा के वासुदेव नामक पुत्र व पृथा नाम की कन्या सँतान थीँ - शूरसेन की बहन, कुँतीभोज नामक राजा से ब्याही गईँ थीँ --
कुँतीभोज स्वयम नि: सँतान थे सो, पृथा कुँतीभोज को सौँप दी गई
- उसके बाद सभी पृथा को " कुँती " कहकर पुकारने लगे
- बडे लाड प्यार से कुँती , कुँतीभोज के महल मेँ बडी होने लगीँ
- एक दिवस महाक्रोधी, ऋषि दुर्वासा कुँतीभोज के महलोँ मेँ पधारे
-- कुँवारी कन्या कुँती ने बडे मनोयोग से दुर्वासा की सेवा की --
दुर्वासा : कुँती बेटी ! मैँ स्नान करके आता हूँ - तुम मेरे भोजन की व्यस्थथा कर लो !"
कुँती : " जो आज्ञा ऋषिवर ! "
कुछ देर बाद दुर्वासा लौटे - भोजन तैयार था परँतु कुछ ज्यादा गर्म था - तो, दुर्वासा ने गर्म थाली को कुँती की पीठ पर रखा
- कुँती अपने आँसू पीकर , उस थाल की उष्णता सहन कर गईँ
- ये देखकर, प्रसन्न हुए दुर्वासा ने, कुँती को, देवोँ को बुलाकर, उन्हेँ वश मेँ करने का एक गुप्त मँत्र दे दिया और ये भी सावधान कर दीया कि, इस मँत्र को यूँ ही व्यर्थ मेँ ना कहा जाये -

एक दिन कौतुहलवश कुँती ने सोचा, ' मैँ इस मँत्र की शक्ति को परखना चाहती हूँ '
- सामने सूर्य देवता पूरी प्रचण्डता के साथ प्रकाशित थे
- सो, कुँती ने मँत्र पढा और सूर्य देव को बुलावा भेजा !
अचानक, सूर्य देव, कुँती के समक्ष उपस्थित होगए
- प्रसाद स्वरुप, सूर्य देव पिता बने और बिन ब्याही कुँती एक दीव्य बालक की माता बन गई !
प्रसाद या आशीर्वाद भी मनुष्य को, सोच समझकर उपयोग मेँ लेना चाहिये --
अन्यथा नहीँ -
अब कुँती क्या करती ? रोते रोते, कुँती ने, लोकलाज के भय से, मानहानि की आशँका से, उस दिव्य बालक को, एक पिटारे मेँ रखकर, नदी मेँ बहा दिया !
यही बालक आगे जा कर, महारथी कर्ण बना !
कुँती का विवाह पाँडु से हुआ -- जिन्हे, पीलिया या पाँडु रोग था
- स्त्री समागम से उनको मृत्यु का भय था
-- उन्होँने अपनी पत्नी कुँती को कहा कि,
" हे महारानी कुँती ! स्त्री समागम से मेरी मृत्यु निस्स:देह होनी है -वँश आगे न बढने से मुझे बडी ग्लानि हो रही है ! "
तब, कुँती ने उन्हेँ " दैवीवशीकरण मन्त्र " की बात बतलाई
-- पाँडु की आज्ञा से कुँती ने ,
धर्मराज से - > युधिष्ठिर,
वायु देव से - भीम,
इन्द्र से -> अर्जुन,
प्राप्त किये -
युधिष्ठिर , पाँडु के बडे भ्राता, धृतराष्ट्र के ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन से पहले जन्मे थे और कुरुवँश की राजगद्दी के वारिस थे
- कुरुक्षेत्र युध्ध की करुण समाप्ति के बाद, माता कुँती ने युधिष्ठिर से कर्ण का श्राध्ध करने को कहा
-- ये रहस्य भी बतलाया कि, "कर्ण पाँडु भाइयोँ मेँ सबसे बडे, सहोदर पुत्र थे" --- युधिष्ठिर को बहोत पीडा व ग्लानि हुई - उन्होँने श्राप दीया ,
कि, " आज के बाद किसी स्त्री के मन मेँ कोई गुप्त बात रह न पायेगी " -
- अत्यँत दुखसे क्रँद करतीँ अपनी बुआ कुँती के शीश पर श्री कृष्ण ने अपना वरद्` हस्त रखा और उन्हेँ साँत्वना दी
-- श्री कृष्ण के पवित्र " पारस - स्पर्श " ने कुँती के पाप धो दिये
- वे महारानी गाँधारी व धृतराष्ट्र के साथ, तपस्या करने वन चलीँ गईँ -
" सब जानत प्रभु, प्रभुता सोई, तदपि कहे बिनु, रहा न कोई "

2 Comments:

Blogger Divine India said...

हरि अनंत हरि कथा अनंता--
हरि हरि कहते कहते मैं हरि हो गया…।
अगर ध्यान से देखा जाए तो यह कथा अपने आप में बहुत ही रहस्यपूर्ण है…सच तो यह है कि हमें अपनी उर्जा को अनजाने में नष्ट नहीं करना चाहिए…।ऐसे सुंदर कथा को यहाँ लाने का धन्यवाद!

मैडम मैने बिना आपसे पुछे अपने ब्लाग पर आपका लिंक जोड़ दिया है,अगर कोई समस्या होती हो तो कहें…मैं हटा दूँगा…THNX

11:37 AM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

दीव्याभ,जी,
नमस्ते !

जी सही कहा ~ ये कथा राहस्यपूर्ण है व श्री कृष्ण के बाल स्वरुप, श्री राधारानी के अँतरँग सखा से हटकर, उनके बडे होकर, शूरवीरता की गाथा का प्रथम परिच्छेद है --

कँस -वध से पह्ले, उनका अभिषेक करने मानोँ,
कुब्जा का आगमन होता है --

अच्छा किया जो आपने मेरे इस "अन्तर्मन " ~जाल घर " का लिन्क आपके ब्लोग पर रखा -- क्या आप नारद व चिठ्ठा चर्चा के लिये भी मेरा लिन्क दे पायेँगे क्या ?

मुझे नही आता कि किस तरहा से वहाँ पर ये लिन्क दिया जाये -- सुझाव की प्रतीक्षा मेँ --

स - स्नेह, सादर
लावण्या

[ ये लिन्क देना चाहती हूँ --

" देखिये-- लेख ~ मालिका : पारस ~ स्पर्श" लावण्या के जाल घर पर ~ ]

9:55 AM  

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