Monday, February 05, 2007

आम्रपाली - भाग १० - "पारस -स्पर्श"

आम्रपाली
दोहा: " मोरे तुम प्रभु गुरु पितु माता जाऊँ कहाँ तजि पद जल जाता
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहु सो तेहि मिलत न कछु सन्देहू "
आज आम्रपाली की आत्मा बैचेन है
-- लिच्छवी नगरी की सुप्रसिध्ध सौँदर्य सामाज्ञी , नगर वधू आम्रपाली उदास है
उसे अपने पैरोँ पे बँधे घूँघरु बिच्छू की तरह दीखाई दे रहे हैँ - उसे काटने के लिये मानोँ उतावले हुए हैँ-
उसके काले काले केशोँ मेँ बँधी वेणी के फूल, गुलाब व मोगरे, उसे सर्प के समान दीखाए दे रहे हैँ
- झूँझला कर, वह वेणी को उत्तर फेँकती है - उनीँदी आँखोँ मेँ कजरा सूख चला है - कँकण ध्वनि से आम्रपाली के कान वेदना का अनुभव कर रहे हैँ
उँगलियोँ मेँ फँसा कँठहार , बार बार वह घूमाती है
- उद्विग्नता से मणियोँ को तोड देती है -
- हार थक कर वह चँदन की पीठिका पर बैठ जाती है
आम्रपाली : " मैँ, लिच्छवी साम्राज्य की कुलवधू, आम्रपाली !
" मैँ, अजात शत्रु की प्रेमिका आम्रपाली !"
" मैँ, स्वर्ण व रजत से तौली जानेवाली आम्रपाली !
मैँ, जीवन को भरे हुए, मादक प्याले की तरह पीनेवाली, आम्रपाली !
" आज, मैँ, आम्रपाली क्यूँ इतनी उग्विग्न हूँ ?
क्या है ये जीवन ? क्योँ है है ये जीवन ? मेरा अस्तित्त्व क्या है ?
आम्रपाली कौन है ? रुपजीविका ?
रुप, मोह, प्रेम, लालसा, वासना, सुख और दु:ख , भावनाएँ क्यूँ आतीँ हैँ जीवन मेँ ? मैँ आज इनका उत्तर चाहती हूँ --"
तभी एक चेरी ( दासी ) आकर प्रणाम करती है --
मँजरी : " देवी की जय हो ! नगर के बाहर, आम्रवन मेँ तथागत का आगमन हुआ है -- चलेँगीँ क्या प्रभु के दर्शन को? "
आम्रपाली: " कौन ? गौतम बुध्ध ? तथागत का आगमन सही समय पर हुआ है -- वैशाली ग्राम के धन्य भाग्य जो प्रभु पधारे ! क्या मैँ किसी अज्ञात सँकेत की प्रतीक्षा मे थी ? मँजरी, कई राज पुरुषोँ को मैँने देखा है -- परँतु, तथागत के दर्शन अवश्य करना चाहूँगी -- चलो मँजरी, इसी क्षण चलो -- "
दोनोँ उसी दिशा मेँ चल पडे जहाँ एक पेड के नीचे, नेत्र मूँद , भगवान बुध्ध बैठे हैँ - आम्रपाली ने समीप जाकर चरण छूए - वो रो रही है -- एकटक बुध्ध भगवान की शाँत सौम्य , सरल मूर्ति को देखती रही -
आम्रपाली: " प्र्भु ! प्रभु ! नेत्र खोलिये - प्रभु ! "
बुध्ध : ( आँखेँ खोलते हैँ -मुस्कुराते हैँ ) " देवी ! स्वस्थ हो ! "
आम्रपाली : " प्रभु, आपकी वाणी का सम्मोहन असँख्य राग रागिनियोँ से अधिक मधुर है - आपका आर्जव, नेत्रोँ की करुणा, तथा उन्नत ललाट का तेज अपार है ! मैँ आम्रपाली, आज पाप की नगरी छोड , आपकी शरण लेती हूँ "
बुध्ध: " देवी ! प्रथम अपने मन का समाधान करो ! "
इतना कहते बुध्ध ने उसका माथा सहलाया
-- आम्रपाली फुट फुट कर रोने लगी --
आम्रपाली : " हे थथागत ! अपके नयनोँ की कोर मेँ , वात्स्लय के अश्रु कैद हैँ ! है, दीव्यात्मा ! आपकी अथाह करुणा ने मेरे मन के मैल को धो दीया "
बुध्ध: " जीवन भटकाव का नाम नहीँ ठहराव है जीवन ! उसी से परम शाँति की उत्पत्ति होती है "
बुध्ध के भिक्खु बोलते हैँ -
" बुध्धँ शरणँ गच्छामि, धम्मम शरणँ गच्छामि, सँघम शरणँ गच्छामि, "
आम्रपाली हाथ जोड कर, झुक कर दुहराती है --
-" बुध्धँ शरणँ गच्छामि, धम्मम शरणँ गच्छामि, सँघम शरणँ गच्छामि, " -

प्रभु ने पतिता को उबार लिया उसे धर्म से नाता जोडना सीखाया - पारस स्पर्श होने से लोहा , लोहा नहीँ रहता , खरा सोना बन जाता है --
तभी बाबा तुलसी दास जी ने राम चरित मानस के अँत मेँ ये गाया है कि,
" मैँ जानौउँ निज नाथ सुभाऊ, अपराधिहे पर कोह न काऊ
अब प्रभे परम अनुग्रह मोरे, सहित कोटि कुल मँगल मोरे,
दैहिक दैविक भौतिक तापा , राम राज नहिँ काहुकि ब्यापा
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती, जासु कृपा नहिँ कृपा अघाती
जिन्ह कर नाम लेत जग माँही, सकल अमँगल मूल नसाँही !
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~-- " पारस - स्पर्श " : लेख मालिका : रचना : -- लावण्या


9 Comments:

Blogger Harshad Jangla said...

Lavanyaji
Your "Paras-Sparsh" is really letting us touch Paras. Excellent and wonderful. Thank you. Regards.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
Feb 7 2007

12:45 PM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Thank you Harshad ji for stopping by & this wonderful comment !
Makes the painstaking typing in Hindi seem worthwhile when my hard work is appreciated --
Rgds,
L

8:18 PM  
Blogger Divine India said...

"अनंत ज्ञान की यह कथा हमें कुछ सीख ही देती है…वैसे भी बुद्ध के करुणामय आभास से ही समस्त पापों का नाश हो जाता है…बहुत सुंदर्…"!
मैनें गांधी जी के संदर्भ में कुछ लिखा है मैं चाहता हूँ कि एक बार आपकी भी दृष्टि पड़े…।

11:27 AM  
Blogger Deepak Jeswal said...

Started reading 'Paras Sparsh' series today. Will be back once I finish reading all of them.

10:00 PM  
Blogger Dr.Bhawna Kunwar said...

बहुत सुंदर लावन्या जी। साधुवाद।

9:02 AM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

दिव्याभ जी,
नमस्ते !

भगवान बुध्ध की करुणा व वैराग्य, कैवल्य ज्ञान के बाद क्षण प्रतिक्षण सँसार के समक्ष,
उजागर हुई थी जिसकी आभा से समूचा पूर्व उद्भभासित होता रहा है

-- चीन, जापान, जावा, सुमात्रा, सिँहल द्वीप, बाली इत्यादि अनेक देश आज तक बुध्ध वाणी का अनुसरण कर रहे हैँ -

आपका लिखा गाँधी जी पर पढा - सही विश्लेशण किया है
- बापू का समस्त जीवन, पारदर्शक, रहा , उनकी सूझबूझ, बनिया कौम की सी व्यवहार कुशल थी --

कास हम भारतीय उनके जीवन से सीख लेकर बस अमुक अँश ही उन सा, कार्य कर पायेँ तब भी वह एक उपलब्धि रहेगी --

आपकी प्रतिक्रियाओँ के लिये, धन्यवाद !
स - स्नेह,
लावण्या

10:30 AM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मेरे आदरणीय अग्रज, श्री महावीरजी,
प्रणाम!

आपने यह लेख मालिका पढी व आपकी अनुभवी व विद्वान द्रष्टि ने इसे भक्ति से सभर पाया जान कर मैँ, कृतार्थ हुई -

क़ृपया, आपके स्नेह का " पारस ~ स्पर्श " मेरे शीश पर सदा रखे रहेँ ~~

~ यही विनती है ~

मेरा नम्र प्रयास सुधीजनोँ को आल्हादित करे वह मेरा परम सौभाग्य होगा -

अस्तु, मार्ग दर्शन व प्रोत्साहन की आकाँक्षा करते हुए,

सादर, स~ स्नेह,

लावण्या

12:34 PM  
Blogger हरिराम said...

'पारस-स्पर्श' शृंखला के 10 काव्य पढ़कर सचमुच जंगलगा लौह-रूपी मन स्वर्ण-जैसा बनने लगता है। अब तलाश है ऐसी शक्ति की जो हम जैसे पत्थर को भी 'पारस' बना दे! कुछ मार्ग-संकेत-सूत्र तो बताएँ!

10:48 PM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

हरिरामजी आप के लिये स्नेह व शुभकामना प्रेषित है - आपके इष्ट का नाम स्मरण सम्पूर्ण श्रध्धा सहित करेँ - गर गुरु होँ तब उनसे बीज मँत्र माग लेँ या आप की जिस छवि पर सर्वाधिक आस्था हो उसी मेँ मन लगाय - साधना के ताप से स्वर्ण शुध्ध होगा
-स -स्नेह,
लावण्या

10:55 PM  

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