"एक हमारा साथी था, जो चला गया" ...( श्री अमृतलाल नागर ) - भाग -- १
लेख़क : श्री अमृतलाल नागर जन्म:: १९१६
भूख
भूख
( १९४६ ) - पँचु गोपाल मुखर्जी जो एक पाठशाला के निर्माण के बाद हेड मास्टरी करते हुआ, बँगाल की भूखमरी को जीते हैँ जिसे पाठक उन्हीँ की नज़रोँ से देखता है इस उपन्यास को आजतक, हिन्दी के खास दस्तावेज की तरह आलोचक व पाठक उतनी ही श्रध्धा से पढते हैँ जितना कि जब उसे पहली बार पढा गया होगा !
सात घुँघटवाला मुखडा
खंजन नयन
अग्नि -गर्भ
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टुकडे टुकडे दास्तान्
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महाभारत- कथा
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मेरी प्रिय कहानियां
नटखट चाची - ५ हास्य कथाएं
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अमृत और विष
( कन्नड "अमृत मट्टु विष" पी। अदेश्वर राव द्वारा लिखित कथा का हिन्दी अनुवाद जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ )
किस्से कहानियाँ,लघु कथाएँ,नाटक, निबँध, आलोचना लिखनेवाले हिन्दी के प्रसिध्ध साहित्यकारजिन्हेँ भारत सरकार ने "पद्म भूषण" पुरस्कार से, नवाज़ा है ...तो सोवियत लेन्ड अवार्ड १९७० मेँ जब मेरे चाचाजी को मिला तब वे बम्बई रुके थे और पापाजी से घर मिलन आये थे और रशिया से एक बहुमूल्य रत्न " ऐलेक्ज़ान्ड्राएट" भी लाये थे, चूँकि उन्हेँ पापाजी के विस्तृत रत्न व ग्रहोँ के ज्ञान के बारे मेँ पता था --आज, रत्न स्व.वासवी मोदी मेरी बडी बहन के बडे पुत्र मौलिक के पास है !
मेरे चाचाजी भी ऐसे ही बहुमूल्य "रत्न" ही तो थे ! हिन्दी साहित्य जगत के असाधारण प्रतिभाशाली साहित्यकार थे वे ! "प्रतिभा जी" के पतिदेव ! लखनऊ शहर के अपने......गौरव स्तँभ ...जो अक्सर बम्बई आया करते थे...
मेरे चाचाजी भी ऐसे ही बहुमूल्य "रत्न" ही तो थे ! हिन्दी साहित्य जगत के असाधारण प्रतिभाशाली साहित्यकार थे वे ! "प्रतिभा जी" के पतिदेव ! लखनऊ शहर के अपने......गौरव स्तँभ ...जो अक्सर बम्बई आया करते थे...
उनकी बडी सुपुत्री, डो. अचला नागर जी ने फिल्म "निकाह" की पटकथा लिखी है - और
रीचा नागर जी ने अपने प्रिय "दद्दु" से प्रेरणा लेकर, " आओ बच्चोँ नाटक लिखेँ.." ' ( बाल नाट्य अकादमी प्रेषित) स्थापित किया है
पूज्य पापाजी के अचानक हुए देहाँत के बाद श्री अमृत लाल चाचाजी ने ये लिख कर
" सँस्मरण पुस्तक " शेष - अशेष" के लिये स्व. वासवी को अपनी यादेँ भेजीँ ...
" सँस्मरण पुस्तक " शेष - अशेष" के लिये स्व. वासवी को अपनी यादेँ भेजीँ ...
"एक हमारा साथी था, जो चला गया"
बँधुवर नरेन्द्र शर्मा जी के साथ मेरी घनिष्ठता योँ तो सन्` १९४३ मेँ उनके बम्बई जाने पर बढी पर अब याद आता है कि उनसे मेरा परिचय सन्` १९३६ मेँ हुआ था -- उस समय मैँने कुछ नवयुवकोँ के साथ : द कोस्मिक सोशलिस्ट " नामकी सँस्था के तत्वाधान मेँ श्रेध्धेय निरालाजी का अभिनँदन समारोह आयोजित किया था यध्यपि यह आयोजन केवल स्थानीय गणमान्य कवियोँ एवँ साहित्यकारोँ के साथ ही सम्पन्न हुआ था, किँतु, सौभाग्यवश आयोजन बहुत ही भव्य रुप से हुआ था कार्यक्रम पूरा होने के बाद एक ठिगने कद और गौरवर्ण के चश्माधारी युवक निरालाजी के सामने आकर खडे हुए॥
उन्हेँ देखते ही महाकवि खिल उठे थे !
उनसे कुशल क्षेम की कुछ बातेँ कर लेने के बाद उन्होँने मुझसे पूछा,
उनसे कुशल क्षेम की कुछ बातेँ कर लेने के बाद उन्होँने मुझसे पूछा,
" इन्हेँ जानते हो ? यह नरेन्द्र शर्मा हैँ ॥"
क्रमश: ...
7 Comments:
अब ये यादें ही धरोहर हैं लावन्या जी हम लोग यहीं मज़बूर महसूस करते हैं स्वयं को।
यादें हमें उन महान कर्णधारों को श्रद्धांजलि ही देती है और उनका स्मृति-साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है…।
डो.भावना जी, मजबूर तो नहीँ महसूस करती अपने आप को ,किँतु प्रेरणा अवश्य ग्रहण करती हूँ
स स्नेह,लावण्या
जी दीव्याभ, सही कह रहे हैँ आप !:)
स स्नेह,लावण्या
मज़बूर से मेरा तात्पर्य ये था लावन्या जी कि हमारा सब जगह वश चल सकता है मगर हम जीवण मरण के आगे हार मान लेते हैं वह सब ऊपर वाले के हाथ में जो होता है हम अपने लोगों से बिछुड़कर दुखी तो होते ही हैं ना उसी दुख के आवेग में मैंने ये शब्द लिखा था आपने उसका कोई दूसरा ही अर्थ समझा शायद।
ओहो, सच कह रही हैँ आप भावना जी
...हाँ मृत्यु एक 'अटल सत्य' है - परँतु, हमारे अपनो का बिछोह मर्माँतक वेदना छोड जाता है जिसका घाव कभी नही भरता ..
:-(
ek yaade hi aur kuch aap jaise log bhi hai jo humari dharohar ko sumbhale hue hai .jiske kaaran hum aaj bhi apni mitti se jude hai. iske liye aapka bahut dahnyabaad.
me bhi ek blog likhne ki kosis kar rahi hu jarur dekhiyega.
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