श्री अमृतलाल नागर -सँस्मरण - भाग -- २
यह सभी चित्र , (स्व, नरेन्द्र शर्मा जी के और मेरे = लावण्या के ) भारत कोकिला श्री लता मँगेशकर जी ने खीँचे हैँ और देविका रानी जी के वेब से उपलब्ध -
नरेंद्र शर्मा का नाम तब तक प्रसिध्धि के पथ पर काफी आगे बढ चुका था. इलाहाबाद विश्वाध्यालय मेँ होनेवाले कवि सम्मेलनोँ मेँ उनकी धूम मचने लगी थी उससे भी बडी बात कि उनके प्रथम काव्य सँग्रह " शूल फूल " की भूमिका डो. अमरनाथ झा ने लिखी थी और वह महाकवि सुमित्रानँदन पँत के अनन्य भक्तोँ मेँ माने जाने लगे थे !
मुझे बहुत दु;ख हुआ कि नरेन्द्र जी के आगमन की सूचना समारोह के हो जाने के बाद मिली, वरना हम लोग भी उनके गीतोँ का कुछ आनँद लाभ कर सकते -खैर! सन चालीस मे मैँ जीविका हेतु फिल्म लेखन के काम से बँबई चला गया !एक साल बाद श्रेध्धेय भगवती बाबू भी "बोम्बे टाकीज़" के आमँत्रण पर बँबई पहुँच गयेतब हमारे दिन बहुत अच्छे कटने लगे प्राय: हर शाम दोनोँ कालिज स्ट्रीट स्थित , स्व. डो. मोतीचँद्र जी के यहाँ बैठेकेँ जमाने लगे -
तब तक भगवती बाबू का परिवार बँबई नहीँ आया था और वह,कालिज स्ट्रीट के पास ही माटुँगा के एक मकान की तीसरी मँजिल मेँ रहते थे। एक दिन डोक्टर साहब के घर से लौटते हुए उन्होँने मुझे बतलाया कि वह एक दो दिन के बाद इलाहाबाद जाने वाले हैँ
सुनकर मैँ बहुत प्रसन्न हुआ प्रदीप जी के तब तक, बोम्बे टोकीज़ से ही सम्बध्ध थे "कँगन, बँधन" और "नया सँसार" फिल्मोँ से उन्होँने बँबई की फिल्मी दुनिया मेँ चमत्कारिक ख्याति अर्जित कर ली थी, लेकिन इस बात के से कुछ पहले ही वह बोम्बे टोकीज़ मेँ काम करने वाले एक गुट के साथ अलग हो गए थे इस गुट ने "फिल्मीस्तान" नामक एक नई सँस्था स्थापित कर ली थी - कँपनी के अन्य लोगोँ के हट जाने से देविका रानी को अधिक चिँता नहीँ थी , किँतु, ख्यातनामा अशोक कुमार और प्रदीप जी के हट जानेसे वे बहुत चिँतित थीँ - कँपनी के तत्कालीन डायरेक्टर श्री धरम्सी ने अशोक कुमार की कमी युसूफ खाँ नामक एक नवयुवक को लाकर पूरी कर दी ! युसूफ का नया नाम, "दिलीप कुमार " रखा गया, किँतु प्रदीप जी की टक्कर के गीतकार के अभाव से श्रीमती राय बहुत परेशान थीँ इसलिये उन्होँने भगवती बाबू से यह आग्रह किया था --
दो तीन दिनोँ के बाद मैँ जब डोक्टर साहब के यहाँ पहुँचा तो उनके बनारसी मित्र और भगवती बाबू के पडौसी स्वर्गीय चतुर्दास गुजराती ने मुझसे कहा, " भैया तो देश गया !"
"कब" ?
"कल"
उन दिनोँ या अब भी बँबई मेँ उत्तर भारतीयोँ को "भैया" कहा जाता था - और कोई भैया जब देश जाता तो बँबई के अन्य दूध -विक्रेता भैया लोग उसे विदा करने के लिये स्टेशन अवश्य जाया करते थे - मैँने गुजराती से कहा,
" अरे मुझे पता नहीँ था वर्ना, मैँ भी भगवती बाबू को बिदाई देने स्टेशन जाता ! खैर!! लौटेँगे कब ? "
"अरे यार ! कवियोँ की ज़्बान का भला कोई ठिकाना है ? योँ कह गये हैँ कि आठ दस दिनोँ मेँ आ जायेँगे !" बीच मे और भी दो चार बार डोक्टर साहब के यहाँ गया, लेकिन "गुरु" के वापस आने के कोई समाचार न मिले -
क्रमश:
नरेंद्र शर्मा का नाम तब तक प्रसिध्धि के पथ पर काफी आगे बढ चुका था. इलाहाबाद विश्वाध्यालय मेँ होनेवाले कवि सम्मेलनोँ मेँ उनकी धूम मचने लगी थी उससे भी बडी बात कि उनके प्रथम काव्य सँग्रह " शूल फूल " की भूमिका डो. अमरनाथ झा ने लिखी थी और वह महाकवि सुमित्रानँदन पँत के अनन्य भक्तोँ मेँ माने जाने लगे थे !
मुझे बहुत दु;ख हुआ कि नरेन्द्र जी के आगमन की सूचना समारोह के हो जाने के बाद मिली, वरना हम लोग भी उनके गीतोँ का कुछ आनँद लाभ कर सकते -खैर! सन चालीस मे मैँ जीविका हेतु फिल्म लेखन के काम से बँबई चला गया !एक साल बाद श्रेध्धेय भगवती बाबू भी "बोम्बे टाकीज़" के आमँत्रण पर बँबई पहुँच गयेतब हमारे दिन बहुत अच्छे कटने लगे प्राय: हर शाम दोनोँ कालिज स्ट्रीट स्थित , स्व. डो. मोतीचँद्र जी के यहाँ बैठेकेँ जमाने लगे -
तब तक भगवती बाबू का परिवार बँबई नहीँ आया था और वह,कालिज स्ट्रीट के पास ही माटुँगा के एक मकान की तीसरी मँजिल मेँ रहते थे। एक दिन डोक्टर साहब के घर से लौटते हुए उन्होँने मुझे बतलाया कि वह एक दो दिन के बाद इलाहाबाद जाने वाले हैँ
" अरे गुरु, यह इलाहाबाद का प्रोग्राम एकाएक कैसे बन गया ? "
" अरे भाई, मिसेज रोय ( देविका रानी रोय ) ने मुझसे कहा है कि मैँ किसी अच्छे गीतकार को यहाँ ले आऊँ! नरेन्द्र जेल से छूट आया है - और मैँ समझता हूँ कि वही ऐसा अकेला गीतकार है जो प्रदीप से शायद टक्कर ले सके! "
सुनकर मैँ बहुत प्रसन्न हुआ प्रदीप जी के तब तक, बोम्बे टोकीज़ से ही सम्बध्ध थे "कँगन, बँधन" और "नया सँसार" फिल्मोँ से उन्होँने बँबई की फिल्मी दुनिया मेँ चमत्कारिक ख्याति अर्जित कर ली थी, लेकिन इस बात के से कुछ पहले ही वह बोम्बे टोकीज़ मेँ काम करने वाले एक गुट के साथ अलग हो गए थे इस गुट ने "फिल्मीस्तान" नामक एक नई सँस्था स्थापित कर ली थी - कँपनी के अन्य लोगोँ के हट जाने से देविका रानी को अधिक चिँता नहीँ थी , किँतु, ख्यातनामा अशोक कुमार और प्रदीप जी के हट जानेसे वे बहुत चिँतित थीँ - कँपनी के तत्कालीन डायरेक्टर श्री धरम्सी ने अशोक कुमार की कमी युसूफ खाँ नामक एक नवयुवक को लाकर पूरी कर दी ! युसूफ का नया नाम, "दिलीप कुमार " रखा गया, किँतु प्रदीप जी की टक्कर के गीतकार के अभाव से श्रीमती राय बहुत परेशान थीँ इसलिये उन्होँने भगवती बाबू से यह आग्रह किया था --
दो तीन दिनोँ के बाद मैँ जब डोक्टर साहब के यहाँ पहुँचा तो उनके बनारसी मित्र और भगवती बाबू के पडौसी स्वर्गीय चतुर्दास गुजराती ने मुझसे कहा, " भैया तो देश गया !"
"कब" ?
"कल"
उन दिनोँ या अब भी बँबई मेँ उत्तर भारतीयोँ को "भैया" कहा जाता था - और कोई भैया जब देश जाता तो बँबई के अन्य दूध -विक्रेता भैया लोग उसे विदा करने के लिये स्टेशन अवश्य जाया करते थे - मैँने गुजराती से कहा,
" अरे मुझे पता नहीँ था वर्ना, मैँ भी भगवती बाबू को बिदाई देने स्टेशन जाता ! खैर!! लौटेँगे कब ? "
"अरे यार ! कवियोँ की ज़्बान का भला कोई ठिकाना है ? योँ कह गये हैँ कि आठ दस दिनोँ मेँ आ जायेँगे !" बीच मे और भी दो चार बार डोक्टर साहब के यहाँ गया, लेकिन "गुरु" के वापस आने के कोई समाचार न मिले -
क्रमश:
6 Comments:
Lavanyaji
Interesting, very interesting.
Waiting eagerly for next.
Thanx & RGDS.
लावन्या जी बहुत अच्छे चित्र हैं। संजोंकर रखना है इन यादों को।
यादों-यादों को जोड़कर हम बनाते है एक रंग आकार और खुशियों में दो आँसुओं से सींचते है उनके ही निर्माण्…। बहुत अच्छा लगा मैडम।
Harshad bhai,
I'm glad that you find this article interesting !
I've added another chapter after a short delay - Do keep reading & commenting.
Thank you & rgds,
L
भावना जी,
नागर जी चाचा जी वाकई मेँ बडे स्नेही व सज्जन पुरुष थे. उनकी मुस्कान आज भी आँखोँ के समक्ष है -
यादेँ हैँ और उनकी साहित्यसेवी सुकर्मोँ का जीता जागता इतिहास ही यहा पर उपस्थित है -
- उन्हीँ की जुबानी अब ब्लोग जगत मेँ सदा के लिये स्थापित हो गई -
जिसकी मुझे खुशी है -
स स्नेह,लावण्या
दीव्याभ,
आप मेरा ब्लोग पढते रहते हो और सराहते हो उसकी खुशी है -
आभार व स्नेह के साथ,
लावण्या
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