सृजनगाथा´´ --
आदरणीय लावण्या दीदी,
चरण स्पर्श
हम " सृजनगाथा´´ में एक नये स्तंभ – 'प्रवासी कलम ' की शुभ शुरूआत आपसे करना चाहते हैं । आपसे इसीलिए कि विदेश में बसे प्रवासियों में आप सबसे वरिष्ठ हैं । साथ ही भारत के प्रतीक पुरुष पं. नरेन्द्र शर्मा की पुत्री भी । भारतीयता का तकाजा है कि श्रीगणेश सदैव बुजुर्गों से ही हो । यह प्रवासी भारतीय साहित्यकारों से एक तरह की बातचीत के बहाने भारतीय समाज, साहित्य, संस्कृति का सम्यक मूल्यांकन भी होगा जो http://www.srijangatha.com/ के 1 जुलाई 2006 के अंक में प्रकाशित होगा । साथ ही हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण लघुपत्रिकाओं में ।
हम जानते हैं कि उम्र के इस मुकाम में आपको लिखने-पढ़ने में कठिनाई होती होगी । पर यथासमय हमें किसी तरह आपके ई-मेल से उत्तर प्राप्त हो जाये तो यह एक ऐतिहासिक कदम होगा ।
दीदी जी, इसके साथ यदि आपकी कोई तस्वीर अपने पिताजी के साथ वाला मिल जाये तो उसे भी स्केन कर अवश्य ई-मेल से भेज दें । आशा है आप हमारा हौसला बढा़येगीं । हम आपका सदैव आभारी रहेंगे ।
(नीचे प्रश्न वर्णित हैं ।)
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प्रश्न- लावण्या जी, आप उम्र के इस मुकाम में वह भी विदेशी भूमि में रहते हुए भी रचना-कर्म से संबंद्ध हैं । यह हम भारतीयों के लिए गौरव की बात है । लेखन की शुरूआत कैसे हुई ? अपनी रचना यात्रा के बारे में हमारे पाठकों को बताना चाहेंगी । अपनी कृतियों के बारे में विस्तार से बतायें ना !
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( उत्तर 1 ) -- जयप्रकाशजी व अन्य लेखक व कवि मित्रोँसे , और समस्त पाठकोँ से, मेरे सादर नमस्कार !
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रचना यात्रा :
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ " भारतसे मेरी भौगोलिक दूरी अवश्य हई है किँतु, आज भी हर प्राँतके प्रति मेरा आकर्षण उतनाही प्रबल है -यूँ लगता है मानो, विश्वव्यापी, विश्वजाल का सँयोजन और आविष्कार शायद बृहत भू- मँडल के बुध्धिजीवी वर्गको एक समतल ,पृष्ठभूमि प्रदान करना और अन्यन्योआश्रित , विचार व सँप्रेरणा प्रदान करना ही इसका आशय हो और उद्भव का हेतु ! "
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( आप उम्र के इस मुकाम में वह भी विदेशी भूमि में रहते हुए भी रचना-कर्म से संबंद्ध हैं । )
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" और अगर आप मेरे निजी जीवन के बारे मेँ पूछ रहेँ हैँ तो, यह कहना चाहती हूँ कि,
" उम्र का बढना न कह कर, उम्र का घटना कहो ! सफर मेँ हर एक डग को, सफर का कटना कहो ! "
( उनके ( भारत के प्रतीक पुरुष पं. नरेन्द्र शर्मा ) -- अप्रकाशित काव्य सँग्रह " बूँदसे साभार " )
और एसी अनेक काव्य पँक्तियाँ मेरे दिवँगत पिताजी , स्व. पॅँ नरेन्द्र शर्माजी की लिखी हुई हैँ और वे दीप ~ शिखा की तरह, मेरा मार्ग प्रशस्त करतीँ रहतीँ हैँ !
कविता देवी के प्रति रुझान और समर्पण शायद पितासे पाई हुई , नैसर्गिक देन ही है --
मेरी अम्मा , स्व. श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्माजी ने, एक खास " बेबी - रेकोर्ड - बुक " मेँ लिखा था कि,
" 'लावण्या , आज, ३ वर्षकी हो गई और कहती है कि, उसने कविता रची है- " मैँ तो माँ को मेरा मन कहती हूँ रे ! "
और उसके बाद, मेरी बडी मौसीजी, स्व. विध्यावतीजी जिन्हे हम " मासीबा " पुकारते थे, उन्होँने एक बडी सुँदर हल्के पीले रँगकी, डायरी मुझे उपहार स्वरुप दी थी और आशिष के साथ कहा था कि, " इसमेँ अपनी कथा - कहानी और गीत लिखती रहना " --
बाल - कथा, ३ सहेलियोँ की साहस गाथा, इत्यादि उसीसे शुरु किया था मैँने ,लिखना --और आज मुडकर देखती हूँ तब भी वही शैशव के वे मीठे दिवस और उत्साह, को अब भी अक्षुण्ण पाती हूँ --
मैने लिखकर बहुत सारा रखा हुआ है -- अब उसे छपवाना जरुरी, लग रहा है -- प्रथम कविता ~ सँग्रह, " फिर गा उठा प्रवासी " बडे ताऊजीकी बेटी श्रीमती गायत्री, शिवशँकर शर्मा " राकेश" जी के सौजन्यसे, तैयार है --
--" प्रवासी के गीत " पापाजी की सुप्रसिध्ध पुस्तक और खास उनके गीत " आज के बिछुडे न जाने कब मिलेँगे ? " जैसी अमर कृति से हिँदी साहित्य जगत से सँबँध रखनेवाले हर मनीषी को यह बत्ताते अपार हर्ष है कि, ' यह मेरा विनम्र प्रयास, मेरे सुप्रतिष्ठित कविर्मनीष पिताके प्रति मेरी निष्ठा के श्रध्धा सुमन स्वर स्वरुप हैँ --
शायद मेरे लहू मेँ दौडते उन्ही के आशिष , फिर हिलोर लेकर, माँ सरस्वती की पावन गँगाको, पुन:प्लावित कर रहे होँ क्या पता ?
जो स्वाभाविक व सहज है, उस प्रक्रिया को शब्द बँधन से समझाना निताँत कठिन हो जाता है --
" सृजन " --- स्वाभाविक व सहज है, उस प्रक्रिया को शब्द बँधन से समझाना उतना ही कठिन होजाता है --
"" सृजन " भी कुछ कुछ एसी ही दूरुह सी क्रिया है -- हो सकता है कि, आप जैसे उत्साही बुध्धीजीवीयँ के इस प्रयास से " सृजन - गाथा " - " यशो- गाथा " मेँ परिणत हो जाये !
आप भारत के छत्तीस गढ प्राँतसे आज हिँदी साहित्य के सवाँगीण विकासके प्रति सजग हैँ, क्रियाशील हैँ, कटिबध्ध हैँ - और आपका यह यज्ञ सफल हो, ये मेरी भी इच्छा है --
अस्तु: सस्नेहाषिश व बधाई !
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प्रश्न- आपकी रचना प्रक्रिया के बारे में बतायें । आप भारत के अलावा इन दिनों विदेश में बस गयी हैं । क्या प्रवासी संसार में आपकी रचनाधर्मिता प्रभावित नहीं होती ? यदि हाँ, तो कैसे ? जहाँ आप निवसती हैं, वहाँ का सृजनात्मक माहौल क्या है । खास कर हिन्दी, साहित्य लेखन के कोण में ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ( उत्तर --2 ) : प्रवासी भारतीय अलग अलग परिस्थितीयोँ मेँ रहते हैँ -- सबका अपना अपना कार्य -क्षेत्र होता है - पारीवारिक जिम्मेदारीयाँ और अन्य सँगठन होते हैँजिनमे उनकी सक्रियता समय ले लेती है --
मेरी रचना प्रक्रिया, स्वाँत: सुखाय तो है ही, साथ साथ, विश्व - जाल के जरिये, असँख्य हिँदी भाषी वेब - पत्रिकाओँ व जाल घरोँ से मेरा लगातार सँबँध बना रहता है -- जैसे --
http://www.aparnaonline.com/lavanyashah.html
http://www.nrifm.com/
Remembering Pt Narendra Sharma: Bollywood's greatest Hindi poet
Hindi poet Pt Narendra Sharma fought for India's independence and then went to Mumbai to write some memorable songs like 'Jyoti Kalash Chalke' and 'Satyam Shivam Sundaram'. Lata Mangeshkar revered him like her father. In this interview, first broadcast on Cincinnati local radio, his daughter Lavanya Shah remembers her legendary father. The All India Radio's entertainment channel was named by him as 'Vividh Bharati'. To listen click here (Hindi)
A rare Photograph of Hindi's three great poets A rare photograph of 1940sSumitra Nandan Pant (seated), Harivansh Rai Bachchan (left) and Pt Narendra Sharma (right)
http://www.manaskriti.com/kaavyaalaya/smritidp1.stm
http://www.hindinest.com/lekhak/lavanya.htm
http://www.hindinest.com/bachpan/bodh.htm
http://www.abhivyakti-hindi.org/phulwari/natak/ekpal01.htm
http://www.boloji.com/women/wd5.htm
http://www.abhivyakti-hindi.org/sansmaran/bachchan/patra_mool.htm
http://www.abhivyakti-hindi.org/visheshank/navvarsh/vinoba.htm
आजके युग का " गूगल " चमत्कारिक आविष्कार, आपको , अँतर्जाल पर, ' मेरा नाम, " लावण्या शाह " टाइप करेँगेँ तो तुरँत कई सारी मेरी लिखी सामग्री , आपके सामने, अल्लादीन के चिराग की तरह, सिर्फ चँद क्षणोँमेँ , आपके सामने, प्रस्तुत कर देँगीँ --
आज २१ वीँ सदी के आरँभ मे, लेप टोप के जरिये, समस्त जगत की गतिविधियोँसे जुडना आसान सा तरीका हो गया है
मेरे पति श्री. दीपकजी के साथ अक्सर कामके सिलसिले मेँ , यात्रा पर , लिखने पढने की सामग्री , मेरे साथ रहती है -- और विशुध्ध शाकाहारी, खानपान की सुविधा भी !! :-))
आजकल मैँ पापाजीकी कविताओँको गुजराती अनुवाद करती रहती हँ -- गुजराती अम्मासे विरासत मेँ मिली मेरी मातृभाषा रही है, और पापाजीने हम ३ बहनोँको गुजराती माध्यमकी पाठशाला मेँ ही रखा था -
उनका कहना था कि, " पहले, अपनी भाषा सीखलो, फिर विश्वकी कोई भी भाषा को सीखना आसान होगा " ---
मेरे इस उत्तर मेँ यह भी साफ है कि, पाश्चात्य जगत मेँ, अँग्रेजी का वर्चस्व है - भारत और चीनकी उन्नति ने इस समाजकी आँखेँ खोल दीँ हँ -
अगर भारत विश्व का तेजीसे सम्पन्न होता हुआ, विकासशील देश है तब, उसके वैभव व सम्पन्नता मेँ शामिल होना समझदारी का पहला कदम होगा----
परँतु, स्वयम भारत मेँ बदलाव जरुरी है -- भारत के महानगरोँसे पढ लिख लर शिक्षित वर्ग, जीवन यापन की दौड मेँ अक्सर विदेश ही पहुँचा है ---
एँजीनीयर, डोक्टर और तकनीकि विशेषज्ञ बहुधा ब्रिटन या अमरिका आकर तगडा वेतन पाना चाहते हैँ - भले ही, मनसे वे भारतेय सँस्कृतिसे विलग नही हो पाते -- फिर भी परिवार की सम्रुध्धि व खुशहाली के लिये, परदेस आकर बस जाते हैँ ..
.यह स्थिती आज बदलने लगी है और ये खुशी की बात है की आनेवाले कल को , प्रबुध्ध विश्व नागरिक जैसी अपनी सँतानोँ के पुनरागमन से और ज्यादा सम्पन्नता मिले !
मेरी यही प्रार्थना है कि, आनेवाला कल, ये शताब्दि, भारतीय सँस्क्रुति की गौरव - गाथा बने जिसका वर्णन हम और आप साथ साथ पढेँ --
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हिँदी लेखन जब तक हिँदी लिखनेवाले और बोलनेवाले, जहूँ कहीँ भी रहेँगेँ, अबाध गति से , आगे बढता रहेगा -- हाँ , आगामी पीढी हिँदी से जुडी रहती है या नहीँ -- इस बात से ही भविष्य के हिँदी लेखन का स्वरुप स्पष्ट होगा --~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
प्रश्न- अपने वर्तमान निवास राज्य में आप हिन्दी और हिन्दी साहित्य, संस्कृति और सभ्यता की स्थिति कैसे मापना चाहेंगी ? 21 वीं सदी में वहाँ हिन्दी का भविष्य कैसा होगा ?
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ( उत्तर - ३ ) जैसा कि मैँने आगे कहा है, हिँदी भाषा का विकास पहले तो हम भारतीय, भारत मेँ प्रशस्त करेँ -- राजधानी नई देहली मेँ ही, कितने वरिष्ठ नेता हिँदी को अपनाये हुए हैँ ? बडे शहेरोँ के अँग्रेजी माध्यम से पढे लिखे, लोग क्या हिँदी को फिल्मोँके या टी.वी. कार्यक्रमोँ से परे, की भाषा मानते हैँ ?
सोचिये, अगर आप खुद उसी वर्गके होते तब आपका झुकाव हिँदी साहित्य के प्रति इतना ही समर्पित रहता ? उत्तर भारत हिँदी भाषा का गढ रहा है ---
और हपारी साँस्कृतिक घरोहर को हमेँ, एक सशक्त्त और सम्पन्न भारत मेँ, एस २१ वीँ सदी मेँ, आगे बढाना है --
अमरिका और ब्रिटनकी अपनी अलग सभ्यता और सम्रुढ्ध भाषा है -- अमरीका के विषय मेँ इतना अवश्य कहूँगी कि, आज, एडी चोटीकी मेहनत से, विश्व का सर्विपरि देश बना हुआ है -- येहाँ, सँगीत की कई भिन्न शाखाएँ हैँ और हर सप्ताह, हर विधामेँ हजारोँ नए गीत रचे जाते हैँ -- लोक प्रसारण के माध्यमोँ का अपने हितमेँ, अपने प्रचारमेँ उपयोग करना इन सभी क्रियाओँ मेँ वे सिध्धहस्त हैँ --अफसोस की बात यह है कि एम्. टी. वी. MTV / CNN --
जैसे कार्यक्रमोँकी देखादेखी भारत के मीडीया भी अँधा अनुकरण कर रहे हैँ --
सर्वथा भारतीय विषय वस्तु और ढोस तत्वोँसे सँबँधित , सर्वथा भारतीय प्रकारके कार्यक्रम ही कालजयी बन पायेँगेँ --
जिसमेँ सार नहीँ वह, काल की लपटोँमेँ जलकर भस्मीभूत हो जायेगा - एसा मेरा मानना है --
हिँदी के भविष्य के प्रति मैँ आशावान हूँ परँतु, अटकलेँ नहीँ लगाऊँगी -- आखिरकार, आजके हिँगी भाषी क्या योगदान कर रहे हैँ और किश्व की परिस्थीती पर भी बहुत कुछ निर्भर रहेगा -- हमेँ तो यही याद रख कर कार्य कर्ते रहना होगा कि,
" कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन" ...
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प्रश्न- आप मूलतः गीतकार हैं । आपका प्रिय गीतकार (या रचनाकार) कौन ? क्यों ? वह दूसरे से भिन्न क्यों है ?
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( उत्तर - ४ )
अगर मैँ कहूँ की, मेरे प्रिय गीतकार मेरे अपने पापा - , स्व. पॅँ नरेन्द्र शर्माजी के गीत मुझे सबसे ज्यादा प्रिय हैँ --
तो अतिशयोक्ति ना होगी --
हाँ, स्व. श्रेध्धेय पँतजी दादाजी, स्व. क्राँतिकारी कवि ऋषि तुल्य निरालाजी , रसपूर्ण कवि श्री बच्चनजी, अपरामेय श्री प्रसादजी , महान कवियत्री श्री. महादेवी वर्माजी, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी विभूतियाँ हिँदी साहित्य गगनके जगमगाते नक्षत्र हैँ जिनकी काँति अजर अमर रहेगी --
( क्यों ?? )
इन सभी के गीतोँ मेँ सरस्वती की वैखरी वाणी उदभासित है -- और सिर्फ मेरे लिये ही नहीँ, सभी के लियेउनकी कृतियाँ प्रणम्य हैँ ----
( वह दूसरे से भिन्न क्यों है ? ) -- भिन्न तो नही कहूँगी -- अभिव्यक्त्ति की गुणवत्ता , ह्रदयग्राही उद्वेलन, ह्रदयगँम भीँज देनेवाली , आडँबरहीन कल्याणकारी वाणी --- सजीव भाव निरुपण, नयनाभिराम द्र्श्य दीख्लानेकी क्षमता, भावोत्तेजना, अहम्` को परम्` से मिलवानेकी वायवी शक्त्ति ,शस्यानुभूति, रसानुभूति की चरम सीमा तक प्राणोँको , सुकुमार पँछीके , कोमल डैनोँ के सहारे ले जानेकी ललक....और भी कुछ जो वाणी विलास के परे है --
वो सभी इन कृतियोँ मेँ विध्यमान है --
जैसा काव्य सँग्रह " प्यासा ~ निर्झर " की शीर्ष कविता मेँ कवि नरेँद्र कहते हैँ,
: मेरे सिवा और भी कुछ है , जिस पर मैँ निर्भुर हूँ ~~ मेरी प्यास हो ना हो जग को, मैँ, प्यासा निर्झर हूँ " ~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ प्रश्न- लंबे समय तक हिन्दी-गीतों को नई कविता वालों के कारण काफी संघर्ष करना पड़ा था । आप इसे कैसे देखती हैं । गीत के भविष्य के बारे में क्या कहना चाहेंगी ?
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ( उत्तर - ५ )
नई कविता भी तो हिँदी की सँतान है -- और हिँदी के आँचल मेँ उसके हर बालक के लिये स्थान है -- क्योँकि, मानव मात्र को, अपनी अपनी अनुभूति को पहले अनुभव मेँ रच बसकर, रमने का जन्मसिध्ध अधिकार है - उतना ही कि जितना खुली हवा मेँ साँस लेनेका --
ये कैसा प्रश्न है की किसी की भावानुभूति अन्य के सृजन मे आडे आये ?
नई कविता लिखनेवालोँ से ना ही चुनौती मिली गीत लिखनेवालोँको नाही कोई सँघर्ष रहा ---
" किसी की बीन, किसी की ढफली, किसी के छँद कीसी के फँद ! "
~~ ये तो गतिशील जीवन प्रवाह है , हमेँ उसमेँ सभी के लिये, एकसा ढाँचा नहीँ खोजना चाहीये --
हर प्राणीको स्वतँत्रता है कि, वह, अपने जीवन और मनन को अपनाये -- यही सच्चा " व्यक्ति स्वातँत्रय " है -
बँधन तो निषक्रीयताका ध्योतक है --
और जब तक खानाबदोश व बँजारे गीत गाते हुए, वादीयोँमेँ घूमते रहेँगेँ,
प्रेमी और प्रेमिका मिलते या बिछुडते रहेँगेँ,
माँ बच्चोँ को लोरीयाँ गा कर सुलाया करेँगीँ
और बहने, सावन के झूलोँ पर अपने वीराँ के लिये सावनकी कजली गाती रहेँगीँ ...
या, पूजारी मँदिरमेँ साँध्य आरती की थाल धरे स्तुति भजन गायेँगेँ,
या गाँव मुहल्लेह भर की स्त्रीयाँ .....बेटीयोँ की बिदाई पर " हीर " गायेँगीँ, "......
गीत " ....गूँजते रहेँगेँ ....
ग़ीत प्रकृति से जुडी और मानस के मोती की तरह पवित्र भेँट हैँ -- उनसे कौन विलग हो पायेगा ?
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प्रश्न- हिन्दी के जानेमाने गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की बेटी होने का सौभाग्य आपके साथ है । आप स्वयं को एक गीतकार या पं.नरेन्द्र शर्मा जी की पुत्री किस रूप में देखती हैं ? और क्यों ?
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( उत्तर - - ६ )
आपने यह छोटा - सा प्रश्न पूछ कर मेरे मर्म को छू लिया है -- सौभाग्य तो है ही कि मैँ पुण्यशाली , सँत प्रकृति कवि ह्रदय के लहू से सिँचित, उनके जीवन उपवन का एक फूल हूँ --
उन्हीँके आचरणसे मिली शिक्षा व सौरभ सँस्कार, मनोबलको हर अनुकूल या विपरित जीवन पडाव परमजबूत किये हुए है --
उनसे ही ईश्वर तत्व क्या है उसकी झाँकी हुई है -- और, मेरी कविता ने प्रणाम किया है --
" जिस क्षणसे देखा उजियारा,
टूट गे रे तिमिर जाल !
तार तार अभिलाषा तूटी,
विस्मृत घन तिमिर अँधकार !
निर्गुण बने सगुण वे उस क्षण ,
शब्दोँ के बने सुगँधित हार !
सुमन ~ हार, अर्पित चरणोँ पर,
समर्पित, जीवन का तार ~ तार !!
( गीत रचना ~ लावण्या )
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प्रश्न- अपने पिता जी के साथ गुजारा वह कौन-सा क्षण है जिसे आप सबसे ज्यादा याद करती हैं । आपके पिता जी के समय घर में साहित्यिक माहौल कैसा था ?
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( उत्तर - - - ७ )
मेरे पापा उत्तर भारत, खुर्जा , जिल्ला बुलँद शहर के जहाँगीरपुर गाँवके पटवारी घराने मेँ जन्मे थे.
प्राँरभिक शिक्षा खुर्जा मेँ हुई - अल्हाबाद विश्वविध्यालयसे अँग्रेजी साहित्य मेँ M/A करनेके बाद,
कुछ वर्ष आनँद भवन मेँ अखिल भारतीय कोँग्रेस कमिटि के हिँदी विभाग से जुडे और नजरबँगद किये गए -
देवली जेल मेँ भूख हडताल से .. ( १४ दिनो तक ) ....
जब बीमार हाल मेँ रिहा किए गए तब गाँव , मेरी दादीजी गँगादेवी से मिलने गये - ---
वहीँ से भगवती बाबू (" चित्रलेखा " के प्रेसिध्ध लेखक ) के आग्रह से बम्बई आ बसे -
वहीँ गुजराती कन्या सुशीला से वरिषठ पँतजी के आग्रह से व आशीर्वाद से पाणि ग्रहण सँस्कार रम्पन्न हुए --
बारात मेँ हिँदी साहित्य जगत और फिल्म जगत की महत्त्व पूर्ण हस्तीयाँ हाजिर थीँ --
दक्षिण भारत कोकिला : सुब्बुलक्षमीजी, सुरैयाजी, दीलिप कुमार, अशोक कुमार, अमृतलाल नागर व श्रीमती प्रतिभा नागरजी, भगवती बाब्य्, सपत्नीक, अनिल बिश्वासजी, गुरु दत्तजी, चेतनानँदजी, देवानँदजी इत्यादी ..
..और जैसी बारात थी उसी प्रकार १९ वे रास्ते पर स्थित उनका आवास
डो. जयरामनजी के शब्दोँ मेँ कहूँ तो , " हिँदी साहित्य का तीर्थ - स्थान " बम्बई जेसे महानगर मेँ एक शीतल सुखद धाम मेँ परिवर्तित हो गया --
उस साहित्य मनीषीकी अनोखी सृजन यात्रा निर्बाध गति से ६ दशकोँ को पार करती हुई,
महाभारत प्रसारण १९८९ , ११ फरवरी की काल रात्रि के ९ बजे तक चलती रही ---
आज याद करूँ तब ये क्षण स्मृति मेँ कौँध - कौँध जाते हैँ ........................................................................................................................................................................................................................
( अ ) हम बच्चे दोपहरी मेँ जब सारे बडे सो रहे थे, पडोस के माणिक दादा के घर से कच्चे पक्के आम तोड कर किलकारीयाँ भर रहे थे कि, अचानक पापाजी वहाँ आ पहुँचे ----
गरज कर कहा, " अरे ! यह आम पूछे बिना क्योँ तोडे ? जाओ, जाकर माफी माँगो और फल लौटा दो "
एक तो चोरी करते पकडे गए और उपर से माफी माँगनी पडी !!!
-- पर अपने और पराये का भेद आज तक भूल नही पाए -- यही उनकी शिक्षा थी --
( ब ) मेरी उम्र होगी कोई ८ या ९ साल की - पापाजी ने, कवि शिरोमणि कवि कालिदास की कृति " मेघदूत " से पढनेको कहा -- सँस्कृत कठिन थी परँतु, जहीँ कहीँ , मैँ लडखडाती, वे मेरा उच्चारण शुध्ध कर देते -- आज, पूजा करते समय , हर श्लोक के साथ ये पल याद आते हैँ --
( क ) मेरी पुत्रा सिँदूर के जन्म के बाद जब भी रात को उठती, पापा , मेरे पास सहारा देते , मिल जाते -- मुझसे कहते, " बेटा, मैँ हूँ , यहाँ " ,..................
आज मेरी बिटिया की प्रसूती के बाद, यही वात्सल्य उँडेलते समय, पापाजी की निस्छल, प्रेम मय वाणी और स्पर्श का अनुभव हो जाता है ..
.जीवन अत्तेत के गर्भ से उदित होकर, भविष्य को सँजोता आगे बढ रहा है --
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
प्रश्न- अपने पिताश्री के साहित्य-वैभव को किस तरह संरक्षण दिया जा रहा है ? आप या आपका परिवार निजी तौर पर इसमें किस हद तक समर्पित है ?
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चरण स्पर्श
हम " सृजनगाथा´´ में एक नये स्तंभ – 'प्रवासी कलम ' की शुभ शुरूआत आपसे करना चाहते हैं । आपसे इसीलिए कि विदेश में बसे प्रवासियों में आप सबसे वरिष्ठ हैं । साथ ही भारत के प्रतीक पुरुष पं. नरेन्द्र शर्मा की पुत्री भी । भारतीयता का तकाजा है कि श्रीगणेश सदैव बुजुर्गों से ही हो । यह प्रवासी भारतीय साहित्यकारों से एक तरह की बातचीत के बहाने भारतीय समाज, साहित्य, संस्कृति का सम्यक मूल्यांकन भी होगा जो http://www.srijangatha.com/ के 1 जुलाई 2006 के अंक में प्रकाशित होगा । साथ ही हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण लघुपत्रिकाओं में ।
हम जानते हैं कि उम्र के इस मुकाम में आपको लिखने-पढ़ने में कठिनाई होती होगी । पर यथासमय हमें किसी तरह आपके ई-मेल से उत्तर प्राप्त हो जाये तो यह एक ऐतिहासिक कदम होगा ।
दीदी जी, इसके साथ यदि आपकी कोई तस्वीर अपने पिताजी के साथ वाला मिल जाये तो उसे भी स्केन कर अवश्य ई-मेल से भेज दें । आशा है आप हमारा हौसला बढा़येगीं । हम आपका सदैव आभारी रहेंगे ।
(नीचे प्रश्न वर्णित हैं ।)
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प्रश्न- लावण्या जी, आप उम्र के इस मुकाम में वह भी विदेशी भूमि में रहते हुए भी रचना-कर्म से संबंद्ध हैं । यह हम भारतीयों के लिए गौरव की बात है । लेखन की शुरूआत कैसे हुई ? अपनी रचना यात्रा के बारे में हमारे पाठकों को बताना चाहेंगी । अपनी कृतियों के बारे में विस्तार से बतायें ना !
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( उत्तर 1 ) -- जयप्रकाशजी व अन्य लेखक व कवि मित्रोँसे , और समस्त पाठकोँ से, मेरे सादर नमस्कार !
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रचना यात्रा :
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ " भारतसे मेरी भौगोलिक दूरी अवश्य हई है किँतु, आज भी हर प्राँतके प्रति मेरा आकर्षण उतनाही प्रबल है -यूँ लगता है मानो, विश्वव्यापी, विश्वजाल का सँयोजन और आविष्कार शायद बृहत भू- मँडल के बुध्धिजीवी वर्गको एक समतल ,पृष्ठभूमि प्रदान करना और अन्यन्योआश्रित , विचार व सँप्रेरणा प्रदान करना ही इसका आशय हो और उद्भव का हेतु ! "
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( आप उम्र के इस मुकाम में वह भी विदेशी भूमि में रहते हुए भी रचना-कर्म से संबंद्ध हैं । )
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" और अगर आप मेरे निजी जीवन के बारे मेँ पूछ रहेँ हैँ तो, यह कहना चाहती हूँ कि,
" उम्र का बढना न कह कर, उम्र का घटना कहो ! सफर मेँ हर एक डग को, सफर का कटना कहो ! "
( उनके ( भारत के प्रतीक पुरुष पं. नरेन्द्र शर्मा ) -- अप्रकाशित काव्य सँग्रह " बूँदसे साभार " )
और एसी अनेक काव्य पँक्तियाँ मेरे दिवँगत पिताजी , स्व. पॅँ नरेन्द्र शर्माजी की लिखी हुई हैँ और वे दीप ~ शिखा की तरह, मेरा मार्ग प्रशस्त करतीँ रहतीँ हैँ !
कविता देवी के प्रति रुझान और समर्पण शायद पितासे पाई हुई , नैसर्गिक देन ही है --
मेरी अम्मा , स्व. श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्माजी ने, एक खास " बेबी - रेकोर्ड - बुक " मेँ लिखा था कि,
" 'लावण्या , आज, ३ वर्षकी हो गई और कहती है कि, उसने कविता रची है- " मैँ तो माँ को मेरा मन कहती हूँ रे ! "
और उसके बाद, मेरी बडी मौसीजी, स्व. विध्यावतीजी जिन्हे हम " मासीबा " पुकारते थे, उन्होँने एक बडी सुँदर हल्के पीले रँगकी, डायरी मुझे उपहार स्वरुप दी थी और आशिष के साथ कहा था कि, " इसमेँ अपनी कथा - कहानी और गीत लिखती रहना " --
बाल - कथा, ३ सहेलियोँ की साहस गाथा, इत्यादि उसीसे शुरु किया था मैँने ,लिखना --और आज मुडकर देखती हूँ तब भी वही शैशव के वे मीठे दिवस और उत्साह, को अब भी अक्षुण्ण पाती हूँ --
मैने लिखकर बहुत सारा रखा हुआ है -- अब उसे छपवाना जरुरी, लग रहा है -- प्रथम कविता ~ सँग्रह, " फिर गा उठा प्रवासी " बडे ताऊजीकी बेटी श्रीमती गायत्री, शिवशँकर शर्मा " राकेश" जी के सौजन्यसे, तैयार है --
--" प्रवासी के गीत " पापाजी की सुप्रसिध्ध पुस्तक और खास उनके गीत " आज के बिछुडे न जाने कब मिलेँगे ? " जैसी अमर कृति से हिँदी साहित्य जगत से सँबँध रखनेवाले हर मनीषी को यह बत्ताते अपार हर्ष है कि, ' यह मेरा विनम्र प्रयास, मेरे सुप्रतिष्ठित कविर्मनीष पिताके प्रति मेरी निष्ठा के श्रध्धा सुमन स्वर स्वरुप हैँ --
शायद मेरे लहू मेँ दौडते उन्ही के आशिष , फिर हिलोर लेकर, माँ सरस्वती की पावन गँगाको, पुन:प्लावित कर रहे होँ क्या पता ?
जो स्वाभाविक व सहज है, उस प्रक्रिया को शब्द बँधन से समझाना निताँत कठिन हो जाता है --
" सृजन " --- स्वाभाविक व सहज है, उस प्रक्रिया को शब्द बँधन से समझाना उतना ही कठिन होजाता है --
"" सृजन " भी कुछ कुछ एसी ही दूरुह सी क्रिया है -- हो सकता है कि, आप जैसे उत्साही बुध्धीजीवीयँ के इस प्रयास से " सृजन - गाथा " - " यशो- गाथा " मेँ परिणत हो जाये !
आप भारत के छत्तीस गढ प्राँतसे आज हिँदी साहित्य के सवाँगीण विकासके प्रति सजग हैँ, क्रियाशील हैँ, कटिबध्ध हैँ - और आपका यह यज्ञ सफल हो, ये मेरी भी इच्छा है --
अस्तु: सस्नेहाषिश व बधाई !
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प्रश्न- आपकी रचना प्रक्रिया के बारे में बतायें । आप भारत के अलावा इन दिनों विदेश में बस गयी हैं । क्या प्रवासी संसार में आपकी रचनाधर्मिता प्रभावित नहीं होती ? यदि हाँ, तो कैसे ? जहाँ आप निवसती हैं, वहाँ का सृजनात्मक माहौल क्या है । खास कर हिन्दी, साहित्य लेखन के कोण में ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ( उत्तर --2 ) : प्रवासी भारतीय अलग अलग परिस्थितीयोँ मेँ रहते हैँ -- सबका अपना अपना कार्य -क्षेत्र होता है - पारीवारिक जिम्मेदारीयाँ और अन्य सँगठन होते हैँजिनमे उनकी सक्रियता समय ले लेती है --
मेरी रचना प्रक्रिया, स्वाँत: सुखाय तो है ही, साथ साथ, विश्व - जाल के जरिये, असँख्य हिँदी भाषी वेब - पत्रिकाओँ व जाल घरोँ से मेरा लगातार सँबँध बना रहता है -- जैसे --
http://www.aparnaonline.com/lavanyashah.html
http://www.nrifm.com/
Remembering Pt Narendra Sharma: Bollywood's greatest Hindi poet
Hindi poet Pt Narendra Sharma fought for India's independence and then went to Mumbai to write some memorable songs like 'Jyoti Kalash Chalke' and 'Satyam Shivam Sundaram'. Lata Mangeshkar revered him like her father. In this interview, first broadcast on Cincinnati local radio, his daughter Lavanya Shah remembers her legendary father. The All India Radio's entertainment channel was named by him as 'Vividh Bharati'. To listen click here (Hindi)
A rare Photograph of Hindi's three great poets A rare photograph of 1940sSumitra Nandan Pant (seated), Harivansh Rai Bachchan (left) and Pt Narendra Sharma (right)
http://www.manaskriti.com/kaavyaalaya/smritidp1.stm
http://www.hindinest.com/lekhak/lavanya.htm
http://www.hindinest.com/bachpan/bodh.htm
http://www.abhivyakti-hindi.org/phulwari/natak/ekpal01.htm
http://www.boloji.com/women/wd5.htm
http://www.abhivyakti-hindi.org/sansmaran/bachchan/patra_mool.htm
http://www.abhivyakti-hindi.org/visheshank/navvarsh/vinoba.htm
आजके युग का " गूगल " चमत्कारिक आविष्कार, आपको , अँतर्जाल पर, ' मेरा नाम, " लावण्या शाह " टाइप करेँगेँ तो तुरँत कई सारी मेरी लिखी सामग्री , आपके सामने, अल्लादीन के चिराग की तरह, सिर्फ चँद क्षणोँमेँ , आपके सामने, प्रस्तुत कर देँगीँ --
आज २१ वीँ सदी के आरँभ मे, लेप टोप के जरिये, समस्त जगत की गतिविधियोँसे जुडना आसान सा तरीका हो गया है
मेरे पति श्री. दीपकजी के साथ अक्सर कामके सिलसिले मेँ , यात्रा पर , लिखने पढने की सामग्री , मेरे साथ रहती है -- और विशुध्ध शाकाहारी, खानपान की सुविधा भी !! :-))
आजकल मैँ पापाजीकी कविताओँको गुजराती अनुवाद करती रहती हँ -- गुजराती अम्मासे विरासत मेँ मिली मेरी मातृभाषा रही है, और पापाजीने हम ३ बहनोँको गुजराती माध्यमकी पाठशाला मेँ ही रखा था -
उनका कहना था कि, " पहले, अपनी भाषा सीखलो, फिर विश्वकी कोई भी भाषा को सीखना आसान होगा " ---
मेरे इस उत्तर मेँ यह भी साफ है कि, पाश्चात्य जगत मेँ, अँग्रेजी का वर्चस्व है - भारत और चीनकी उन्नति ने इस समाजकी आँखेँ खोल दीँ हँ -
अगर भारत विश्व का तेजीसे सम्पन्न होता हुआ, विकासशील देश है तब, उसके वैभव व सम्पन्नता मेँ शामिल होना समझदारी का पहला कदम होगा----
परँतु, स्वयम भारत मेँ बदलाव जरुरी है -- भारत के महानगरोँसे पढ लिख लर शिक्षित वर्ग, जीवन यापन की दौड मेँ अक्सर विदेश ही पहुँचा है ---
एँजीनीयर, डोक्टर और तकनीकि विशेषज्ञ बहुधा ब्रिटन या अमरिका आकर तगडा वेतन पाना चाहते हैँ - भले ही, मनसे वे भारतेय सँस्कृतिसे विलग नही हो पाते -- फिर भी परिवार की सम्रुध्धि व खुशहाली के लिये, परदेस आकर बस जाते हैँ ..
.यह स्थिती आज बदलने लगी है और ये खुशी की बात है की आनेवाले कल को , प्रबुध्ध विश्व नागरिक जैसी अपनी सँतानोँ के पुनरागमन से और ज्यादा सम्पन्नता मिले !
मेरी यही प्रार्थना है कि, आनेवाला कल, ये शताब्दि, भारतीय सँस्क्रुति की गौरव - गाथा बने जिसका वर्णन हम और आप साथ साथ पढेँ --
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हिँदी लेखन जब तक हिँदी लिखनेवाले और बोलनेवाले, जहूँ कहीँ भी रहेँगेँ, अबाध गति से , आगे बढता रहेगा -- हाँ , आगामी पीढी हिँदी से जुडी रहती है या नहीँ -- इस बात से ही भविष्य के हिँदी लेखन का स्वरुप स्पष्ट होगा --~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
प्रश्न- अपने वर्तमान निवास राज्य में आप हिन्दी और हिन्दी साहित्य, संस्कृति और सभ्यता की स्थिति कैसे मापना चाहेंगी ? 21 वीं सदी में वहाँ हिन्दी का भविष्य कैसा होगा ?
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ( उत्तर - ३ ) जैसा कि मैँने आगे कहा है, हिँदी भाषा का विकास पहले तो हम भारतीय, भारत मेँ प्रशस्त करेँ -- राजधानी नई देहली मेँ ही, कितने वरिष्ठ नेता हिँदी को अपनाये हुए हैँ ? बडे शहेरोँ के अँग्रेजी माध्यम से पढे लिखे, लोग क्या हिँदी को फिल्मोँके या टी.वी. कार्यक्रमोँ से परे, की भाषा मानते हैँ ?
सोचिये, अगर आप खुद उसी वर्गके होते तब आपका झुकाव हिँदी साहित्य के प्रति इतना ही समर्पित रहता ? उत्तर भारत हिँदी भाषा का गढ रहा है ---
और हपारी साँस्कृतिक घरोहर को हमेँ, एक सशक्त्त और सम्पन्न भारत मेँ, एस २१ वीँ सदी मेँ, आगे बढाना है --
अमरिका और ब्रिटनकी अपनी अलग सभ्यता और सम्रुढ्ध भाषा है -- अमरीका के विषय मेँ इतना अवश्य कहूँगी कि, आज, एडी चोटीकी मेहनत से, विश्व का सर्विपरि देश बना हुआ है -- येहाँ, सँगीत की कई भिन्न शाखाएँ हैँ और हर सप्ताह, हर विधामेँ हजारोँ नए गीत रचे जाते हैँ -- लोक प्रसारण के माध्यमोँ का अपने हितमेँ, अपने प्रचारमेँ उपयोग करना इन सभी क्रियाओँ मेँ वे सिध्धहस्त हैँ --अफसोस की बात यह है कि एम्. टी. वी. MTV / CNN --
जैसे कार्यक्रमोँकी देखादेखी भारत के मीडीया भी अँधा अनुकरण कर रहे हैँ --
सर्वथा भारतीय विषय वस्तु और ढोस तत्वोँसे सँबँधित , सर्वथा भारतीय प्रकारके कार्यक्रम ही कालजयी बन पायेँगेँ --
जिसमेँ सार नहीँ वह, काल की लपटोँमेँ जलकर भस्मीभूत हो जायेगा - एसा मेरा मानना है --
हिँदी के भविष्य के प्रति मैँ आशावान हूँ परँतु, अटकलेँ नहीँ लगाऊँगी -- आखिरकार, आजके हिँगी भाषी क्या योगदान कर रहे हैँ और किश्व की परिस्थीती पर भी बहुत कुछ निर्भर रहेगा -- हमेँ तो यही याद रख कर कार्य कर्ते रहना होगा कि,
" कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन" ...
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प्रश्न- आप मूलतः गीतकार हैं । आपका प्रिय गीतकार (या रचनाकार) कौन ? क्यों ? वह दूसरे से भिन्न क्यों है ?
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( उत्तर - ४ )
अगर मैँ कहूँ की, मेरे प्रिय गीतकार मेरे अपने पापा - , स्व. पॅँ नरेन्द्र शर्माजी के गीत मुझे सबसे ज्यादा प्रिय हैँ --
तो अतिशयोक्ति ना होगी --
हाँ, स्व. श्रेध्धेय पँतजी दादाजी, स्व. क्राँतिकारी कवि ऋषि तुल्य निरालाजी , रसपूर्ण कवि श्री बच्चनजी, अपरामेय श्री प्रसादजी , महान कवियत्री श्री. महादेवी वर्माजी, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी विभूतियाँ हिँदी साहित्य गगनके जगमगाते नक्षत्र हैँ जिनकी काँति अजर अमर रहेगी --
( क्यों ?? )
इन सभी के गीतोँ मेँ सरस्वती की वैखरी वाणी उदभासित है -- और सिर्फ मेरे लिये ही नहीँ, सभी के लियेउनकी कृतियाँ प्रणम्य हैँ ----
( वह दूसरे से भिन्न क्यों है ? ) -- भिन्न तो नही कहूँगी -- अभिव्यक्त्ति की गुणवत्ता , ह्रदयग्राही उद्वेलन, ह्रदयगँम भीँज देनेवाली , आडँबरहीन कल्याणकारी वाणी --- सजीव भाव निरुपण, नयनाभिराम द्र्श्य दीख्लानेकी क्षमता, भावोत्तेजना, अहम्` को परम्` से मिलवानेकी वायवी शक्त्ति ,शस्यानुभूति, रसानुभूति की चरम सीमा तक प्राणोँको , सुकुमार पँछीके , कोमल डैनोँ के सहारे ले जानेकी ललक....और भी कुछ जो वाणी विलास के परे है --
वो सभी इन कृतियोँ मेँ विध्यमान है --
जैसा काव्य सँग्रह " प्यासा ~ निर्झर " की शीर्ष कविता मेँ कवि नरेँद्र कहते हैँ,
: मेरे सिवा और भी कुछ है , जिस पर मैँ निर्भुर हूँ ~~ मेरी प्यास हो ना हो जग को, मैँ, प्यासा निर्झर हूँ " ~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ प्रश्न- लंबे समय तक हिन्दी-गीतों को नई कविता वालों के कारण काफी संघर्ष करना पड़ा था । आप इसे कैसे देखती हैं । गीत के भविष्य के बारे में क्या कहना चाहेंगी ?
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ( उत्तर - ५ )
नई कविता भी तो हिँदी की सँतान है -- और हिँदी के आँचल मेँ उसके हर बालक के लिये स्थान है -- क्योँकि, मानव मात्र को, अपनी अपनी अनुभूति को पहले अनुभव मेँ रच बसकर, रमने का जन्मसिध्ध अधिकार है - उतना ही कि जितना खुली हवा मेँ साँस लेनेका --
ये कैसा प्रश्न है की किसी की भावानुभूति अन्य के सृजन मे आडे आये ?
नई कविता लिखनेवालोँ से ना ही चुनौती मिली गीत लिखनेवालोँको नाही कोई सँघर्ष रहा ---
" किसी की बीन, किसी की ढफली, किसी के छँद कीसी के फँद ! "
~~ ये तो गतिशील जीवन प्रवाह है , हमेँ उसमेँ सभी के लिये, एकसा ढाँचा नहीँ खोजना चाहीये --
हर प्राणीको स्वतँत्रता है कि, वह, अपने जीवन और मनन को अपनाये -- यही सच्चा " व्यक्ति स्वातँत्रय " है -
बँधन तो निषक्रीयताका ध्योतक है --
और जब तक खानाबदोश व बँजारे गीत गाते हुए, वादीयोँमेँ घूमते रहेँगेँ,
प्रेमी और प्रेमिका मिलते या बिछुडते रहेँगेँ,
माँ बच्चोँ को लोरीयाँ गा कर सुलाया करेँगीँ
और बहने, सावन के झूलोँ पर अपने वीराँ के लिये सावनकी कजली गाती रहेँगीँ ...
या, पूजारी मँदिरमेँ साँध्य आरती की थाल धरे स्तुति भजन गायेँगेँ,
या गाँव मुहल्लेह भर की स्त्रीयाँ .....बेटीयोँ की बिदाई पर " हीर " गायेँगीँ, "......
गीत " ....गूँजते रहेँगेँ ....
ग़ीत प्रकृति से जुडी और मानस के मोती की तरह पवित्र भेँट हैँ -- उनसे कौन विलग हो पायेगा ?
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प्रश्न- हिन्दी के जानेमाने गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की बेटी होने का सौभाग्य आपके साथ है । आप स्वयं को एक गीतकार या पं.नरेन्द्र शर्मा जी की पुत्री किस रूप में देखती हैं ? और क्यों ?
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( उत्तर - - ६ )
आपने यह छोटा - सा प्रश्न पूछ कर मेरे मर्म को छू लिया है -- सौभाग्य तो है ही कि मैँ पुण्यशाली , सँत प्रकृति कवि ह्रदय के लहू से सिँचित, उनके जीवन उपवन का एक फूल हूँ --
उन्हीँके आचरणसे मिली शिक्षा व सौरभ सँस्कार, मनोबलको हर अनुकूल या विपरित जीवन पडाव परमजबूत किये हुए है --
उनसे ही ईश्वर तत्व क्या है उसकी झाँकी हुई है -- और, मेरी कविता ने प्रणाम किया है --
" जिस क्षणसे देखा उजियारा,
टूट गे रे तिमिर जाल !
तार तार अभिलाषा तूटी,
विस्मृत घन तिमिर अँधकार !
निर्गुण बने सगुण वे उस क्षण ,
शब्दोँ के बने सुगँधित हार !
सुमन ~ हार, अर्पित चरणोँ पर,
समर्पित, जीवन का तार ~ तार !!
( गीत रचना ~ लावण्या )
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प्रश्न- अपने पिता जी के साथ गुजारा वह कौन-सा क्षण है जिसे आप सबसे ज्यादा याद करती हैं । आपके पिता जी के समय घर में साहित्यिक माहौल कैसा था ?
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( उत्तर - - - ७ )
मेरे पापा उत्तर भारत, खुर्जा , जिल्ला बुलँद शहर के जहाँगीरपुर गाँवके पटवारी घराने मेँ जन्मे थे.
प्राँरभिक शिक्षा खुर्जा मेँ हुई - अल्हाबाद विश्वविध्यालयसे अँग्रेजी साहित्य मेँ M/A करनेके बाद,
कुछ वर्ष आनँद भवन मेँ अखिल भारतीय कोँग्रेस कमिटि के हिँदी विभाग से जुडे और नजरबँगद किये गए -
देवली जेल मेँ भूख हडताल से .. ( १४ दिनो तक ) ....
जब बीमार हाल मेँ रिहा किए गए तब गाँव , मेरी दादीजी गँगादेवी से मिलने गये - ---
वहीँ से भगवती बाबू (" चित्रलेखा " के प्रेसिध्ध लेखक ) के आग्रह से बम्बई आ बसे -
वहीँ गुजराती कन्या सुशीला से वरिषठ पँतजी के आग्रह से व आशीर्वाद से पाणि ग्रहण सँस्कार रम्पन्न हुए --
बारात मेँ हिँदी साहित्य जगत और फिल्म जगत की महत्त्व पूर्ण हस्तीयाँ हाजिर थीँ --
दक्षिण भारत कोकिला : सुब्बुलक्षमीजी, सुरैयाजी, दीलिप कुमार, अशोक कुमार, अमृतलाल नागर व श्रीमती प्रतिभा नागरजी, भगवती बाब्य्, सपत्नीक, अनिल बिश्वासजी, गुरु दत्तजी, चेतनानँदजी, देवानँदजी इत्यादी ..
..और जैसी बारात थी उसी प्रकार १९ वे रास्ते पर स्थित उनका आवास
डो. जयरामनजी के शब्दोँ मेँ कहूँ तो , " हिँदी साहित्य का तीर्थ - स्थान " बम्बई जेसे महानगर मेँ एक शीतल सुखद धाम मेँ परिवर्तित हो गया --
उस साहित्य मनीषीकी अनोखी सृजन यात्रा निर्बाध गति से ६ दशकोँ को पार करती हुई,
महाभारत प्रसारण १९८९ , ११ फरवरी की काल रात्रि के ९ बजे तक चलती रही ---
आज याद करूँ तब ये क्षण स्मृति मेँ कौँध - कौँध जाते हैँ ........................................................................................................................................................................................................................
( अ ) हम बच्चे दोपहरी मेँ जब सारे बडे सो रहे थे, पडोस के माणिक दादा के घर से कच्चे पक्के आम तोड कर किलकारीयाँ भर रहे थे कि, अचानक पापाजी वहाँ आ पहुँचे ----
गरज कर कहा, " अरे ! यह आम पूछे बिना क्योँ तोडे ? जाओ, जाकर माफी माँगो और फल लौटा दो "
एक तो चोरी करते पकडे गए और उपर से माफी माँगनी पडी !!!
-- पर अपने और पराये का भेद आज तक भूल नही पाए -- यही उनकी शिक्षा थी --
( ब ) मेरी उम्र होगी कोई ८ या ९ साल की - पापाजी ने, कवि शिरोमणि कवि कालिदास की कृति " मेघदूत " से पढनेको कहा -- सँस्कृत कठिन थी परँतु, जहीँ कहीँ , मैँ लडखडाती, वे मेरा उच्चारण शुध्ध कर देते -- आज, पूजा करते समय , हर श्लोक के साथ ये पल याद आते हैँ --
( क ) मेरी पुत्रा सिँदूर के जन्म के बाद जब भी रात को उठती, पापा , मेरे पास सहारा देते , मिल जाते -- मुझसे कहते, " बेटा, मैँ हूँ , यहाँ " ,..................
आज मेरी बिटिया की प्रसूती के बाद, यही वात्सल्य उँडेलते समय, पापाजी की निस्छल, प्रेम मय वाणी और स्पर्श का अनुभव हो जाता है ..
.जीवन अत्तेत के गर्भ से उदित होकर, भविष्य को सँजोता आगे बढ रहा है --
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प्रश्न- अपने पिताश्री के साहित्य-वैभव को किस तरह संरक्षण दिया जा रहा है ? आप या आपका परिवार निजी तौर पर इसमें किस हद तक समर्पित है ?
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( उत्तर - ८ )
मेरे छोटे भाई कु. परितोष नरेन्द्र शर्मा ने अथक परिश्रम के बाद, पूज्य पापाजी की , सभी साहित्यिक कृतियाँ एकत्र कर एक भागीरथ यज्ञ को सँपन्न करने का आरँभ किया है --- मैँ पुत्री होनेके नाते, अपना सहयोग दे रही हूँ --
--भारत सरकार से हमेँ सुझाव मिला था कि, राजकीय सँग्रह कोष के लिये वे इस साहित्य वैभव को ले जाना चाहते हैँ
परँतु, मेरे भाई ने अब तक उसे अपन पास सहेज कर रखा है और वह शीघ्र ही, वेब - पोर्टल का निर्माण करेगा --
साथ साथ,........................ " "ज्योति ~ कलश ~ स्व. पँ. नरेन्द्र शर्मा सम्पूर्ण ग्रँथावली " का विधिवत लोकार्पण समारोह / उत्सव भी सम्पन्न होगा --
जिसकी अध्यक्षता स्वर साम्राज्ञी कु. लता मँगेशकरजी जो मेरी बडी दीदी हैँ उन्होने हामी भरी है आनेकी -- वे करेँगीँ -- '
और अमिताभजी भी कविता पाठ करेँगे -- हमारा उनसे ये विनम्र अनुरोध रहेगा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
- प्रश्न- भारत में रचे जा रहे हिन्दी गीतों को तो आप पढ़ती ही होंगी । आप तब और अब हिन्दी गीतों में क्या अंतर देखती हैं ? एक श्रेष्ठ गीत की विशेषता क्या होनी चाहिए ?
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( उत्तर - ९ )
भारत के ज्यादातर गीत , या तो अन्तर्जाल के विभिन्न जाल घरोँ के माध्यम से, या फिल्मी गीतोँ के जरिये ही विदेश मेँ पहुँच रहे हैँ - दुसरा साहित्य प्राप्त करने के कडे प्रयास करने पडते हैँ --
एक श्रेष्ठ गीत की विशेषता या की महत्ता यही है कि, जो दिलोदीमाग मेँ बस जाये -- देर तक हम जिसे गुनगुनायेँ, कालजयी साहित्य हो या एक श्रेष्ठ गीत --- विशेषता दोनोँ की .....
खास बात यही होती है जो गीत की रचना, उसकी गेयता और माधुर्य ही हमेँ बाँधे रखते हैँ --
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प्रश्न- समकालीन अँगरेज़ी साहित्य से तो आप अवगत होती होंगी ही । शायद पढ़ती लिखती भी होंगी । इस प्रसंग में आपकी टिप्पणी क्या है ? अंगरेज़ी साहित्य और हिन्दी साहित्य की विभाजन रेखा कहाँ है ?
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( उत्तर १० )
-- हर प्राँतके अपने अनुभवोँका साहित्य , " दर्पण " होता है --
अँग्रेजी साहित्य लेँ तब मध्य युगीन व नए पुन: स्थापित युरोपीय प्रजा से बसे अमरीका के साहित्य मेँ भी काफी अँतर है --
वीक्टोरीयन साहित्य मेँ गृहस्थ जीवन के प्रति आदर, आदर्शवाद के गुलाबी चश्मे से दुनिया के नजारे देखना , मासूम लगता है --
अमरीका , गणराज्य की सार्वभोमकता , स्वाधीनता , अबाध गति से २०० वर्षोँ से चली आरही है --
२ विश्व - युध्ध, आँतरिक युध्ध के बाद , अश्वेतोँ की आजादी के बाद
तकनीकी विकास, व्योम व अवकाश पर पहुँच , चँद्रमा पर विजय पताका लहराती हुई, तकनीकीअगवानी के साथ समाज की बदलती हुई छवि उभरना अनिवार्य सा था --
भारत को आजाद हुए अभी कुछ दशक ही हुए हैँ -- प्रगति हो रही है --
उन्नति अवश्य होगी -- साहित्य सृजन भी अनुरुप होगा --
इन दोनो के बीच की विभाजन रेखा साँस्कृतिक है,
जिसे आजका आधुनिक रचनाकार , लाँघनेको उध्ध्यत है --
सफलता कितनी मिलेगी यह मैँ नहीँ कह सकूँगी -- क्योँकि, अमरीका मेँ रहती जरुर हूँ परँतु, आज भी, नारी मनके , गुप्त भावोँको प्रकट करता हुआ साहित्य मैँ नहीँ लिखना चाहती -- यह मेरा अपना रवैया है ---
शायद आप मुझे " पुतरातनपँथी " ही कहेँ -- तो वही सही --
ज़ो एसा साहित्य लिख्नना चाहते हैँ उनसे मेरा विरोध भी नहीँ -- " तुँडे तुँडे मतिर्भिन्ना " ..........
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प्रश्न- कहते हैं अब पठनीयता खासकर साहित्यिक बिरादरी में कम हुई है । इसे आप किस तरह लेती हैं ?
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( उत्तर - ११ )
साहित्योक बिरादरी के लोग अब शायद अन्य कार्य - क्षेत्रोँ से जुडकर , आजके महत्त्वपूर्ण विधाओँ से कुछ
नया सीख रहे होँ - -- क्या पता ?
आज का युग, मशीन युग से भी आगे, सँचार व सम्प्रेषणाओँ का युग है --
मनुष्य भौतिक सुख भोग, स्व केन्द्रीत आत्मानुभूतियोँ से समाज से जुडे रहकर भी स्वेच्छाचारी और स्वतँत्र निर्णय लेने का हिमायती होता जा रहा है ----
युग बदला है, और जोर जबर्दस्ती से नहीँ मगर जब साहित्य आकर्षण का केन्द्र बिँदू बनेगा तब शायद झुकाव भी ज्यादा होगा ---
जिस किसी को भी साहित्य के प्रति भक्ति भाव य समर्पण भाव हो उसे बाहरी गतिविधियोँकी चिँता किये बिना ,
एक लक्ष्य को साम्ने रख कर अपना काम इमानदारी से करते रहना चाहिये -- ये मेरा मत है --
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प्रश्न- कहते हैं आजादी के बाद भारत अन्दरुनी तौर पर कमजोर हुआ है पर सारे जहान में इसका कद बढ़ा है ? यह कैसा अंतर्विरोध है ? वह कौन –सी अच्छाई है जो पश्चिम में है किन्तु यहाँ भारत में नहीं ? और वह कौन-सी बुराई है जो पश्चिम में किन्तु भारत में नहीं ।
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( उत्तर १२ )
जयप्रकाशजी , नाही तो मैँ कोई विशेषज्ञ हूँ ना ही प्रकाँड विद्वान !!
फिर भी आपने जो मुझे आज इतना बडा सन्मान दिया है, इतने कठिन सवाल पूछ कर जिसे मैँ एक साधारण स्त्री, अप्ने अनुभवोँ से तौलकर आपके सामने रख रही हूँ तो आशा करती हूँ कि, पाठक गण मेरी इस परीक्षा मेँ मुझे अपने समकक्ष खडा रहने देँगेँ --
और, अपनी टिप्पणीयोँसे हमारा ज्ञान- वर्धन करेँगेँ --
हर पाठक के अभिप्राय से कुछ सीखने की आशा है --
तो हाँ, आपके प्रश्न के उत्तर मेँ यही कहना चाहूँगी कि, बदलाव के पहले, घर्षण होता ही है --
सँघर्ष के बिना क्राँति और अँतर्द्वँदोँ के बाद ही निषष्कर्षनिकलता है --
आशा वान हूँ तो यही कामना है कि, भारत भूमि फिर " शस्य श्यामला स्वरुप " मेँ परिमार्जित हो --
सम्पन्न हो --
किसी भी एक देश मेँ , या व्यक्ति मेँ -- सभी अच्छाईयाँ होँ ये असँभव सी बात है -- -
भारत के पास प्राचीन सँस्कृति के विभिन्न वरदान हैँ --
पाश्चात्त्य देशोँ ने कटु अनुभवोँ की दुर्गम लडाईयाँ लडी हैँ ---
विश्व - युध्धोँ के दर्म्यान, हर पुरुष ने पराई धरती पर मर खप कर, स्वाधीनता की ध्वजा को, उठाये रखा था
-जब कि, स्त्रीयोँ ने फेक्टरी, कारखानोँ और खेत खलिहानोँ मेँ काम करते हुए, बालकोँ को पाला पोसा, बडा किया --
ये आसान तो नहीँ था - समाज व्यवस्था मेँ इस के कारण परिवर्तन हुए --
भारत मेँ कर्मठता का बोध, जागा है -- स्त्री शक्ति को लाँछित य अपमानित ना करके, उन्हे सक्षम बनाते हुए, पश्चिम के स्वयम् पर प्रमाणित अनुशासन से सीखकर , २१ वीँ सदी के नजरिये से देखना जरुरी है --
हाँ पश्चिम की, समाज के कुछ वर्ग और तबकोँ मेँ आध्यात्मिक अनुशासनहीन अराजकता को नकारना भी अनिवार्य है -- सँम्`-लैँगिक विवाह, विवाह - विच्छेद, १ ही वरिष्ठ / मुखियावाला परिवार, कामसाधनोँका असीमित -- अविवेकी उपयोग, सँवेदनहीन मानस से उपजी भाव शून्यता, उदासीनता , सिमटते पारिवारिक दायरोँ मेँ पनपती घुटन इत्यादि भी इसी पश्चिम की विशिष्ट्ताएँ हैँ --
और उनसे बच कर, उनको लाँघकर , आगे निकलते हुए, भारतीय या पूर्व के सुविचार / सँस्कारओँ को सहेजे हम अबश्य, सुखद मनोनभूमि पर आ पायेँगे एसा मेरा विश्वास है ---
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
--- प्रश्न- इन दिनों वैश्वीकरण, विश्व बाजार, उदारीकरण और कंप्युटर प्रौद्योगिकी का नारा सकल जहान में तैर रहा है, एक दीर्घ अनुभवी, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी होने के कारण इसे आप किस नज़रिए से देखती हैं ? खास कर भारत जैसे नवविकासशील देश के परिप्रेक्ष्य में --
( उत्तर: १३ ) :
आपने जो इतने सारे अलँकरण मुझे पहना दीए !!!
" एक दीर्घ अनुभवी, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी "
कह कर :-))
उनके लिये आपकी आभारी हूँ --
भारत को आज विश्व के सामने अपनी प्रतिभा दीखलाने का अवसर इन्हीँ " कंप्युटर प्रौद्योगिकी" --- " उदारीकरण " etc . से मिला है --- परँतु याद रहे, यह विश्व के बाजार मेँ हर विक्रेता अपनी मँडी सजाये, अपना सामान बेचनेकी पहल मेँ पैँतेरे आजमा रहा है --
अगर अमरीका का हथियारोँ के उपत्पादन मेँ अग्रणी स्थान है तो युध्ध कहीँ भी हो, अपने आयुध बेचकर फायदा तो लेगा ही ?
चीन भले ही छोटे मोटे लघु उध्योग कर , निकास बढाले, पर २० जम्बो जेट खरीद कर वही धन फिर BOEING CO. ( बोइँग क्पनी ) को मिल जायेगा --
हाँ इतना जरुर हुआ है कि, आज जो भी घटना घटती है, वह दुनिया के हर अखबार मेँ सुर्खीयोँके साथ छप जाती है -- इस लिहाजसे, " वैश्वीकरण, विश्व बाजार," -- शब्द अवश्य चरितार्थ हुए हैँ --
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
प्रश्न- अन्य वह बातें जो आप हम सबके बीच बाँटना चाहेंगी ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
( उत्तर- १५ ) --
जयप्रकाशजी, " सृजन ~ गाथा परिवार " के सभी को धन्यवाद कहना चाहूँगी -- आपने इतनी धैर्यसे मेरे उत्तरोँको सुना / पढा --
आज यहीँ बातोँ का सिलसिला समाप्त करते हैँ क्युँकि, यूँभी स्त्रीयाँ बदनाम हैँ -- बहुत ज्यादा बोलने के लिये -- :-))
अब ज्यादा कह कर लोगोँको उबाना नहीँ चाहती --
आपने बडे गँभीर मुद्दे उठाये हैँ -- और लोग भी अपने विचार रखेँ जिनके उत्तर मैँ भी पढना चाहूँगी ताकि कुछ नया सीख पाऊँ -
अब आज्ञा ...
और , आपके साथ सदैव मेरी सद्` भावना , शुभ कामना रहेगी ..." शुभम्` -अस्तु : इति "
लावण्या
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आपका भाई ही,
-- Jayprakash Manas
मेरे छोटे भाई कु. परितोष नरेन्द्र शर्मा ने अथक परिश्रम के बाद, पूज्य पापाजी की , सभी साहित्यिक कृतियाँ एकत्र कर एक भागीरथ यज्ञ को सँपन्न करने का आरँभ किया है --- मैँ पुत्री होनेके नाते, अपना सहयोग दे रही हूँ --
--भारत सरकार से हमेँ सुझाव मिला था कि, राजकीय सँग्रह कोष के लिये वे इस साहित्य वैभव को ले जाना चाहते हैँ
परँतु, मेरे भाई ने अब तक उसे अपन पास सहेज कर रखा है और वह शीघ्र ही, वेब - पोर्टल का निर्माण करेगा --
साथ साथ,........................ " "ज्योति ~ कलश ~ स्व. पँ. नरेन्द्र शर्मा सम्पूर्ण ग्रँथावली " का विधिवत लोकार्पण समारोह / उत्सव भी सम्पन्न होगा --
जिसकी अध्यक्षता स्वर साम्राज्ञी कु. लता मँगेशकरजी जो मेरी बडी दीदी हैँ उन्होने हामी भरी है आनेकी -- वे करेँगीँ -- '
और अमिताभजी भी कविता पाठ करेँगे -- हमारा उनसे ये विनम्र अनुरोध रहेगा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
- प्रश्न- भारत में रचे जा रहे हिन्दी गीतों को तो आप पढ़ती ही होंगी । आप तब और अब हिन्दी गीतों में क्या अंतर देखती हैं ? एक श्रेष्ठ गीत की विशेषता क्या होनी चाहिए ?
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( उत्तर - ९ )
भारत के ज्यादातर गीत , या तो अन्तर्जाल के विभिन्न जाल घरोँ के माध्यम से, या फिल्मी गीतोँ के जरिये ही विदेश मेँ पहुँच रहे हैँ - दुसरा साहित्य प्राप्त करने के कडे प्रयास करने पडते हैँ --
एक श्रेष्ठ गीत की विशेषता या की महत्ता यही है कि, जो दिलोदीमाग मेँ बस जाये -- देर तक हम जिसे गुनगुनायेँ, कालजयी साहित्य हो या एक श्रेष्ठ गीत --- विशेषता दोनोँ की .....
खास बात यही होती है जो गीत की रचना, उसकी गेयता और माधुर्य ही हमेँ बाँधे रखते हैँ --
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प्रश्न- समकालीन अँगरेज़ी साहित्य से तो आप अवगत होती होंगी ही । शायद पढ़ती लिखती भी होंगी । इस प्रसंग में आपकी टिप्पणी क्या है ? अंगरेज़ी साहित्य और हिन्दी साहित्य की विभाजन रेखा कहाँ है ?
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( उत्तर १० )
-- हर प्राँतके अपने अनुभवोँका साहित्य , " दर्पण " होता है --
अँग्रेजी साहित्य लेँ तब मध्य युगीन व नए पुन: स्थापित युरोपीय प्रजा से बसे अमरीका के साहित्य मेँ भी काफी अँतर है --
वीक्टोरीयन साहित्य मेँ गृहस्थ जीवन के प्रति आदर, आदर्शवाद के गुलाबी चश्मे से दुनिया के नजारे देखना , मासूम लगता है --
अमरीका , गणराज्य की सार्वभोमकता , स्वाधीनता , अबाध गति से २०० वर्षोँ से चली आरही है --
२ विश्व - युध्ध, आँतरिक युध्ध के बाद , अश्वेतोँ की आजादी के बाद
तकनीकी विकास, व्योम व अवकाश पर पहुँच , चँद्रमा पर विजय पताका लहराती हुई, तकनीकीअगवानी के साथ समाज की बदलती हुई छवि उभरना अनिवार्य सा था --
भारत को आजाद हुए अभी कुछ दशक ही हुए हैँ -- प्रगति हो रही है --
उन्नति अवश्य होगी -- साहित्य सृजन भी अनुरुप होगा --
इन दोनो के बीच की विभाजन रेखा साँस्कृतिक है,
जिसे आजका आधुनिक रचनाकार , लाँघनेको उध्ध्यत है --
सफलता कितनी मिलेगी यह मैँ नहीँ कह सकूँगी -- क्योँकि, अमरीका मेँ रहती जरुर हूँ परँतु, आज भी, नारी मनके , गुप्त भावोँको प्रकट करता हुआ साहित्य मैँ नहीँ लिखना चाहती -- यह मेरा अपना रवैया है ---
शायद आप मुझे " पुतरातनपँथी " ही कहेँ -- तो वही सही --
ज़ो एसा साहित्य लिख्नना चाहते हैँ उनसे मेरा विरोध भी नहीँ -- " तुँडे तुँडे मतिर्भिन्ना " ..........
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प्रश्न- कहते हैं अब पठनीयता खासकर साहित्यिक बिरादरी में कम हुई है । इसे आप किस तरह लेती हैं ?
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( उत्तर - ११ )
साहित्योक बिरादरी के लोग अब शायद अन्य कार्य - क्षेत्रोँ से जुडकर , आजके महत्त्वपूर्ण विधाओँ से कुछ
नया सीख रहे होँ - -- क्या पता ?
आज का युग, मशीन युग से भी आगे, सँचार व सम्प्रेषणाओँ का युग है --
मनुष्य भौतिक सुख भोग, स्व केन्द्रीत आत्मानुभूतियोँ से समाज से जुडे रहकर भी स्वेच्छाचारी और स्वतँत्र निर्णय लेने का हिमायती होता जा रहा है ----
युग बदला है, और जोर जबर्दस्ती से नहीँ मगर जब साहित्य आकर्षण का केन्द्र बिँदू बनेगा तब शायद झुकाव भी ज्यादा होगा ---
जिस किसी को भी साहित्य के प्रति भक्ति भाव य समर्पण भाव हो उसे बाहरी गतिविधियोँकी चिँता किये बिना ,
एक लक्ष्य को साम्ने रख कर अपना काम इमानदारी से करते रहना चाहिये -- ये मेरा मत है --
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प्रश्न- कहते हैं आजादी के बाद भारत अन्दरुनी तौर पर कमजोर हुआ है पर सारे जहान में इसका कद बढ़ा है ? यह कैसा अंतर्विरोध है ? वह कौन –सी अच्छाई है जो पश्चिम में है किन्तु यहाँ भारत में नहीं ? और वह कौन-सी बुराई है जो पश्चिम में किन्तु भारत में नहीं ।
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( उत्तर १२ )
जयप्रकाशजी , नाही तो मैँ कोई विशेषज्ञ हूँ ना ही प्रकाँड विद्वान !!
फिर भी आपने जो मुझे आज इतना बडा सन्मान दिया है, इतने कठिन सवाल पूछ कर जिसे मैँ एक साधारण स्त्री, अप्ने अनुभवोँ से तौलकर आपके सामने रख रही हूँ तो आशा करती हूँ कि, पाठक गण मेरी इस परीक्षा मेँ मुझे अपने समकक्ष खडा रहने देँगेँ --
और, अपनी टिप्पणीयोँसे हमारा ज्ञान- वर्धन करेँगेँ --
हर पाठक के अभिप्राय से कुछ सीखने की आशा है --
तो हाँ, आपके प्रश्न के उत्तर मेँ यही कहना चाहूँगी कि, बदलाव के पहले, घर्षण होता ही है --
सँघर्ष के बिना क्राँति और अँतर्द्वँदोँ के बाद ही निषष्कर्षनिकलता है --
आशा वान हूँ तो यही कामना है कि, भारत भूमि फिर " शस्य श्यामला स्वरुप " मेँ परिमार्जित हो --
सम्पन्न हो --
किसी भी एक देश मेँ , या व्यक्ति मेँ -- सभी अच्छाईयाँ होँ ये असँभव सी बात है -- -
भारत के पास प्राचीन सँस्कृति के विभिन्न वरदान हैँ --
पाश्चात्त्य देशोँ ने कटु अनुभवोँ की दुर्गम लडाईयाँ लडी हैँ ---
विश्व - युध्धोँ के दर्म्यान, हर पुरुष ने पराई धरती पर मर खप कर, स्वाधीनता की ध्वजा को, उठाये रखा था
-जब कि, स्त्रीयोँ ने फेक्टरी, कारखानोँ और खेत खलिहानोँ मेँ काम करते हुए, बालकोँ को पाला पोसा, बडा किया --
ये आसान तो नहीँ था - समाज व्यवस्था मेँ इस के कारण परिवर्तन हुए --
भारत मेँ कर्मठता का बोध, जागा है -- स्त्री शक्ति को लाँछित य अपमानित ना करके, उन्हे सक्षम बनाते हुए, पश्चिम के स्वयम् पर प्रमाणित अनुशासन से सीखकर , २१ वीँ सदी के नजरिये से देखना जरुरी है --
हाँ पश्चिम की, समाज के कुछ वर्ग और तबकोँ मेँ आध्यात्मिक अनुशासनहीन अराजकता को नकारना भी अनिवार्य है -- सँम्`-लैँगिक विवाह, विवाह - विच्छेद, १ ही वरिष्ठ / मुखियावाला परिवार, कामसाधनोँका असीमित -- अविवेकी उपयोग, सँवेदनहीन मानस से उपजी भाव शून्यता, उदासीनता , सिमटते पारिवारिक दायरोँ मेँ पनपती घुटन इत्यादि भी इसी पश्चिम की विशिष्ट्ताएँ हैँ --
और उनसे बच कर, उनको लाँघकर , आगे निकलते हुए, भारतीय या पूर्व के सुविचार / सँस्कारओँ को सहेजे हम अबश्य, सुखद मनोनभूमि पर आ पायेँगे एसा मेरा विश्वास है ---
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--- प्रश्न- इन दिनों वैश्वीकरण, विश्व बाजार, उदारीकरण और कंप्युटर प्रौद्योगिकी का नारा सकल जहान में तैर रहा है, एक दीर्घ अनुभवी, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी होने के कारण इसे आप किस नज़रिए से देखती हैं ? खास कर भारत जैसे नवविकासशील देश के परिप्रेक्ष्य में --
( उत्तर: १३ ) :
आपने जो इतने सारे अलँकरण मुझे पहना दीए !!!
" एक दीर्घ अनुभवी, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी "
कह कर :-))
उनके लिये आपकी आभारी हूँ --
भारत को आज विश्व के सामने अपनी प्रतिभा दीखलाने का अवसर इन्हीँ " कंप्युटर प्रौद्योगिकी" --- " उदारीकरण " etc . से मिला है --- परँतु याद रहे, यह विश्व के बाजार मेँ हर विक्रेता अपनी मँडी सजाये, अपना सामान बेचनेकी पहल मेँ पैँतेरे आजमा रहा है --
अगर अमरीका का हथियारोँ के उपत्पादन मेँ अग्रणी स्थान है तो युध्ध कहीँ भी हो, अपने आयुध बेचकर फायदा तो लेगा ही ?
चीन भले ही छोटे मोटे लघु उध्योग कर , निकास बढाले, पर २० जम्बो जेट खरीद कर वही धन फिर BOEING CO. ( बोइँग क्पनी ) को मिल जायेगा --
हाँ इतना जरुर हुआ है कि, आज जो भी घटना घटती है, वह दुनिया के हर अखबार मेँ सुर्खीयोँके साथ छप जाती है -- इस लिहाजसे, " वैश्वीकरण, विश्व बाजार," -- शब्द अवश्य चरितार्थ हुए हैँ --
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प्रश्न- अन्य वह बातें जो आप हम सबके बीच बाँटना चाहेंगी ।
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( उत्तर- १५ ) --
जयप्रकाशजी, " सृजन ~ गाथा परिवार " के सभी को धन्यवाद कहना चाहूँगी -- आपने इतनी धैर्यसे मेरे उत्तरोँको सुना / पढा --
आज यहीँ बातोँ का सिलसिला समाप्त करते हैँ क्युँकि, यूँभी स्त्रीयाँ बदनाम हैँ -- बहुत ज्यादा बोलने के लिये -- :-))
अब ज्यादा कह कर लोगोँको उबाना नहीँ चाहती --
आपने बडे गँभीर मुद्दे उठाये हैँ -- और लोग भी अपने विचार रखेँ जिनके उत्तर मैँ भी पढना चाहूँगी ताकि कुछ नया सीख पाऊँ -
अब आज्ञा ...
और , आपके साथ सदैव मेरी सद्` भावना , शुभ कामना रहेगी ..." शुभम्` -अस्तु : इति "
लावण्या
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आपका भाई ही,
-- Jayprakash Manas
8 Comments:
Lavanya Didi
Though it is going to take pretty long to complete this whole Srujangatha, I could not resist to give you my heartfelt compliments for this lifestory published here. Its just excellent. and I find it difficult to express my joy having read some part.
Thanks and regards.
-Harshadbhai
Atlanta, USA
March 16 2007
Harshad bhai,
as always, your kind & encouraging words have given me so much hope &
feel grateful that you liked my efforts.
This was published in "SRIJAN GATHA " magazine from Chattisgadh -- few months back.
aabhar & rgds,
L
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लावण्या जी,
मैं आपके बारे इतना कुछ नहीं जानता था, आज जाना और कुछ उर्जा मिली। अभी तक ब्लॉग-जगत् जो टैगिंग प्रकरण चल रहा था उससे इतना सुंदर ई-साक्षात्कार निकलकर सामने आ सकता है, मैंने सोचा न था।
आपको नमन्।
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शैलेष भाई,
नमस्ते !
आपको यह साक्षात्कार दीख गया और अच्छा लगा उसके लिये जयप्रकाश मानसजी
की पुन: आभारी हूँ -
उन्हीँ ने ये प्रश्न पूछे जो आपके सामने हाजिर हैँ उत्तरोँ के साथ.
आज के दौर मेँ ऐसे प्रकार के विचार विमर्श आवश्यक हैँ ऐसा मैँ मानती हूँ -
सादर स-स्नेह,
लावण्या
Lavanya ji aapka sakshatkar padha.aapke bare men or jayada jankari mili acha laga.aapke pryas bhi sarahniya han.aap apne pryas jari rakhe bhagvan se yahi prarthna ha.
Priya Dr.Bhawna ji,
aap ko mere prayas achche lage aur aapne ees lambe sakshatkaar ko padha ker tippani dee uske liye , aabharee hoon.
Aise hee sneh banaye rakhiyega.
sa ~ sneh,
L
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