Friday, February 02, 2007

शबरी : भाग - -६ - पारस -स्पर्श


शबरी
राम नाम मणि दीप धरूँ जीर्ण देहरी द्वार ,
तुलसी भीतर बाहर हुँ, जो चाहसि उजियार !
माता रामो मत्पिता रामचँद्र , स्वामी रामो मत्सखा रामचँद्र
सर्वस्वँ मे रामचन्द्र दयालु, नान्यँ जाने नैव जाने न जाने
गँधर्व राज चित्रकवच के एक बेटी थी नाम था - मालिनी -- उसने एक शिकारी " कलमासा " से मित्रता कर ली -
उसके गँधर्व पति को बडा क्रोध आया -उसने श्राप दिया ये कहते कि,
" जा ! तू जँगल मेँ रह ! "
मालिनी बहुत रोई गिडगिडाई परँतु सब व्यर्थ !
गँधर्वलोक छोड कर अब उसे पृथ्वी पर आना पडा
-- बियाबान जँगलोँ मेँ भटकेते अब वह मतँगाश्रम मेँ आई
-- वहीँ पर मतँग ऋषिके अन्य शिष्योँ के साथ रहकर वह अपने दिवस बिताने लगी
-- तपस्वीयोँ ने दयावश उसे आशीर्वाद दिया -
हे सन्यासिनी, तुम्हेँ शीघ्र ही ईश्वर दर्शन देँगेँ
- तुम्हेँ अवश्य मुक्ति मिलेगी -- तू तपस्या करती रह!००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००एक एक दिन की बात है -- सुबह से मीठी मीठी बयार चल रही थी
-- पक्षी चहचहाने लगे - पुष्प आज ज्यादा ही सुँगधि फैला रहे थे
- कमल के फूल खिल उठे थे -- वन के प्राणी गर्दन उठा कर किसी की बाट जोह रहे थे
-- और क्योँ ना हो ?
श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ, मतँगाश्रम कि ओर चल पडे थे
-- कई वर्षोँ से " राम राम " रटती सन्यासिनी शबरी , भीलनी , वही मालिनी अब वृध्धा हो चली थी
-- उसका आनँद ह्र्दय मेँ समा नहीँ रहा था जबसे श्री राम के आश्रम आनेकी सूचना उसे मिली थी
- प्रेमवश शबरी सोचने लगी, " मेरे श्री राम, थक कर आवेँगेँ तब इस जँगल मेँ उन्हेँ क्या खिलाऊँगी ? "
बेर की झाडी मेँ उसने कई पके हुए बेर देखे और एक बडे पत्ते का दोना बनाकर , बेरोँ को तोडने लगी
-- फिर विचार आया, " अरे ! कहीँ ये खट्टे तो नहीँ ? ला, चख लूँ ! मैँ मेरे राम को मीठे बेर ही खिलाऊँगी "
-- अचानक उस वृध्धा की सारी मनोकामना पूर्ण करते हुए , दो भ्राता राम व लक्ष्मण पगडँडीयोँ से चलते हुए समक्ष खडे हो गए !
भोली शबरी, प्रेमवश अपने झूठे बेर , प्रभु को चख चख कर खिलाने लगी ! ईश्वर सदा प्रेम व भक्ति के प्यासे होते हैँ
-- श्री राम को, शबरी माँ के भोले चेहरे मेँ व झूठे बेरोँ मेँ माता जगदँबा की झाँकी हुई जिनका प्रसाद उन्होँने स्वीकार किया -
- शबरी ने राम लक्षमण को बतलाया कि पँपा सरोवर के पास ऋष्यमूकपर्वत है वहीँ पर वानर राज सुग्रीव रहते हैँ -- उनसे आपकी भेँट होगी -
शबरी : " प्रभु, मैँ अज्ञानी आगे का मार्ग क्या बताऊँ ? आप अँतर्यामी हो - हर प्राणी के ह्र्दय की बात जानते हो
- मुझ पर कृपा कर "नवधा भक्ति " समझाइये " प्रभु ने चरण छू रही शबरी को उठा लिया -
स्वयँ झुके
- नवधा भक्ति का ज्ञान पाकर शबरी मुक्त हुईँ
-- स्वर्ग की ओर बढती शबरी को आकाश मार्ग मेँ उसका पति, गँधर्व वित्तिहोत्र लेने आया
- अब शबरी / मालिनी स्वर्गलोक को चल पडी--
" सब जानत प्रभु प्रभुता सोई, तदपि कहे बिनु रहा न कोई "

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