Thursday, February 01, 2007

" गणिका "-- भाग ४ - पारस -स्पर्श


" मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुबीर

अस बिचारि रघुवँश मणि हरहु बिषम भव पीर ! "


समय था सतयुग!
धर्म और सत्य गाय के चार पग पर सँतुलन साधे स्थिर खडा था सत्य के समाँतर ही धर्म था !
किँतु समाज एक ऐसी व्यस्था है जहाँ अच्छाई और बुराई दोनोँ हमेशा साथ साथ रहते आये हैँ
- तभी तो जब अमृत - मँथन हुआ उसी के साथ हलाहल विष भी निकल आया था
- सतयुग की कथा है जहाँ एक शहर मेँ " परशु" नामक वैश्य बनिया रहता था - उसकी पत्नी का नाम था " जीवन्ती " मनुष्य के कर्म ही उसे नाना विध दुख व व्याधि ( बीमारी ) देते हैँ - सो परशु वैश्य को भरी जवानी मेँ ही दमे का रोग लग गया ! पत्नी जीवन्ती ने पति की कडी सेवा की - वैध्यराज ने भी उपचार मेँ कोई कसर ना छोडी ! परँतु वैध्य की चिकित्सा और पत्नी की सेवा भी परशु को बचा न पाई !


जीवन्ती रोज अपने पालतू सुग्गे के पीँजरे के पास खडे खडे , रोया करती थी ! खूब रोई धोई ! पर होनी को कौन टाल सका है ? :-(


" राम राम " करते करते उस दुखिया के दिन बीतने लगे

- पति के निधन पर, कुबुध्धि से प्रेरित जीवन्ती ने, लाचार होकर,

आजीविका का साधन अपनाया वो भी कैसा ! वैश्यावृति का !


अपने पालतू तोते से जीवन्ती पुत्र की तरह प्रेम करती थी - प्रत्येक सुबह स्नान, पूजा कर वह, तोते को सीखलाती ,

" बोल बेटा, " राम, राम "


.कभी गाती भी,

" पढो रे पोपट राजा राम राम , बोलो रे पोपट राजा राम राम "


अपने जीवन मेँ दुष्कर्म करने पर भी बस, हर दिन "राम नाम " का पाठ करने से जीवन्ती की आत्मा को मुक्ति मिली वह सँसार सागर तर गई


- ये कथा बाबा तुलसीदास की " गणिका " की है


--- बोलो " राम राम राम राजा राम राम राम "

2 Comments:

Blogger Sumir Sharma said...

Respected Antarman,

What is this book Paras Saparsh. I have never come across its name.

It is really good that you are bringing Indian mythological stories. Kindly continue with such stories.

It is just a guess work, Are you referring to Tulsi Ramayana.

It is fascinating to observe that some of you in America are really doing good for Indian language. I am a great admirer of Laxmi Naryana Gupta of Kavya Kala blog. He is a mathematician but he has a great skill to weave Indian mythology in his poem to comment on present scenario.

Just few lines from my poem wherein I am quite critical of falling value standards in materialistic world taken from my own blog sumir hinid main:
हम से
हमारे दिल का
हाल न पुछिए
बद्हवासी मे जाने
क्या क्या कह गए



युँ तो किसी से
गिला नही हमे
सीने पर जाने
किस किस के वार
हम सह गए


कदरो कीमतो का अब यह है
हर एक मुजरिम दुहाई देकर
गुणाह बख्शा लेता है
खुदाई का दावा कर के
शैतान भी गन्गा नहा लेता है


अलफाजो का अब अर्थ सिफर हुआ
भावो की धज्जिया उड चली


जजबातो के अदाकारो ने
शब्दो के अर्थ बदल दिए
बेखोफ हुआ आदम युँ
कि खुदा को
हिसाब सिखाने चला है
पाप पुण का खाता
ऍसा लिखता है कि
हासिल मे बेदाग दिखता है


हम से
हमारे दिल का
हाल न पुछिए


बद्हवासी मे जाने
क्या क्या कह गए


युँ तो किसी से
गिला नही हमे
बस युँ ही
खुदा को
काफिर कह गए
and second one:
हे राम
रात के गहन अन्‍धेरे में

घबराई हुई एक अबला

खुद में सिमटी हुई

इधर उधर देखे

ड़री ड़री सी

बे-तरन्‍नुम सांसे

सम्‍भालती हुई सी

शायद चाहती हो होंसला

हर एक कण से

क्‍या हर एक कण में

तुम हो हे राम

Here in I had tried to pass an oblique criticism of chauvinist mindset which can talk of equality of genders but in practice it has never been put into practice.

I will again visit your blog.

Regards
Sumir

10:38 AM  
Blogger लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Hello Sumir,

"paras - sparsh " is a mini story called Montage that I'd written almost 16 yrs ago ! It is my Original work -- like my late father Pandit Narendra Sharma who gave the entire story format for T.V. Series MAHABHARAT -- made by sree B.R. Chopra & Ravi Chopra --

I'm glad you liked my effort. Thank you --

I too am fond of Laxminarayanji's writing style. His sense of humor is like noone else' :-)

You've observed a Truth which is usually brushed aside that " Gender Equality " has never been fully practised -- not even in the most advanced nation like U.S.A.
which is slowly but surely being noticed.

Some of us - young man like you should conciously change this system.

आपकी कविता भी अच्छी है -- लिखते रहेँ --
स - स्नेह,
लावण्या

3:44 PM  

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