आदरणीय लावण्या दीदी,
चरण स्पर्श
हम " सृजनगाथा´´ में एक नये स्तंभ – 'प्रवासी कलम ' की शुभ शुरूआत आपसे करना चाहते हैं । आपसे इसीलिए कि विदेश में बसे प्रवासियों में आप सबसे वरिष्ठ हैं । साथ ही भारत के प्रतीक पुरुष पं. नरेन्द्र शर्मा की पुत्री भी । भारतीयता का तकाजा है कि श्रीगणेश सदैव बुजुर्गों से ही हो । यह प्रवासी भारतीय साहित्यकारों से एक तरह की बातचीत के बहाने भारतीय समाज, साहित्य, संस्कृति का सम्यक मूल्यांकन भी होगा जो
http://www.srijangatha.com/ के 1 जुलाई 2006 के अंक में प्रकाशित होगा । साथ ही हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण लघुपत्रिकाओं में ।
हम जानते हैं कि उम्र के इस मुकाम में आपको लिखने-पढ़ने में कठिनाई होती होगी । पर यथासमय हमें किसी तरह आपके ई-मेल से उत्तर प्राप्त हो जाये तो यह एक ऐतिहासिक कदम होगा ।
दीदी जी, इसके साथ यदि आपकी कोई तस्वीर अपने पिताजी के साथ वाला मिल जाये तो उसे भी स्केन कर अवश्य ई-मेल से भेज दें । आशा है आप हमारा हौसला बढा़येगीं । हम आपका सदैव आभारी रहेंगे ।
(नीचे प्रश्न वर्णित हैं ।)
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प्रश्न- लावण्या जी, आप उम्र के इस मुकाम में वह भी विदेशी भूमि में रहते हुए भी रचना-कर्म से संबंद्ध हैं । यह हम भारतीयों के लिए गौरव की बात है । लेखन की शुरूआत कैसे हुई ? अपनी रचना यात्रा के बारे में हमारे पाठकों को बताना चाहेंगी । अपनी कृतियों के बारे में विस्तार से बतायें ना !
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( उत्तर 1 ) -- जयप्रकाशजी व अन्य लेखक व कवि मित्रोँसे , और समस्त पाठकोँ से, मेरे सादर नमस्कार !
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रचना यात्रा :
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ " भारतसे मेरी भौगोलिक दूरी अवश्य हई है किँतु, आज भी हर प्राँतके प्रति मेरा आकर्षण उतनाही प्रबल है -यूँ लगता है मानो, विश्वव्यापी, विश्वजाल का सँयोजन और आविष्कार शायद बृहत भू- मँडल के बुध्धिजीवी वर्गको एक समतल ,पृष्ठभूमि प्रदान करना और अन्यन्योआश्रित , विचार व सँप्रेरणा प्रदान करना ही इसका आशय हो और उद्भव का हेतु ! "
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( आप उम्र के इस मुकाम में वह भी विदेशी भूमि में रहते हुए भी रचना-कर्म से संबंद्ध हैं । )
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" और अगर आप मेरे निजी जीवन के बारे मेँ पूछ रहेँ हैँ तो, यह कहना चाहती हूँ कि,
" उम्र का बढना न कह कर, उम्र का घटना कहो ! सफर मेँ हर एक डग को, सफर का कटना कहो ! "
( उनके ( भारत के प्रतीक पुरुष पं. नरेन्द्र शर्मा ) -- अप्रकाशित काव्य सँग्रह " बूँदसे साभार " )
और एसी अनेक काव्य पँक्तियाँ मेरे दिवँगत पिताजी , स्व. पॅँ नरेन्द्र शर्माजी की लिखी हुई हैँ और वे दीप ~ शिखा की तरह, मेरा मार्ग प्रशस्त करतीँ रहतीँ हैँ !
कविता देवी के प्रति रुझान और समर्पण शायद पितासे पाई हुई , नैसर्गिक देन ही है --
मेरी अम्मा , स्व. श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्माजी ने, एक खास " बेबी - रेकोर्ड - बुक " मेँ लिखा था कि,
" 'लावण्या , आज, ३ वर्षकी हो गई और कहती है कि, उसने कविता रची है- " मैँ तो माँ को मेरा मन कहती हूँ रे ! "
और उसके बाद, मेरी बडी मौसीजी, स्व. विध्यावतीजी जिन्हे हम " मासीबा " पुकारते थे, उन्होँने एक बडी सुँदर हल्के पीले रँगकी, डायरी मुझे उपहार स्वरुप दी थी और आशिष के साथ कहा था कि, " इसमेँ अपनी कथा - कहानी और गीत लिखती रहना " --
बाल - कथा, ३ सहेलियोँ की साहस गाथा, इत्यादि उसीसे शुरु किया था मैँने ,लिखना --और आज मुडकर देखती हूँ तब भी वही शैशव के वे मीठे दिवस और उत्साह, को अब भी अक्षुण्ण पाती हूँ --
मैने लिखकर बहुत सारा रखा हुआ है -- अब उसे छपवाना जरुरी, लग रहा है -- प्रथम कविता ~ सँग्रह, " फिर गा उठा प्रवासी " बडे ताऊजीकी बेटी श्रीमती गायत्री, शिवशँकर शर्मा " राकेश" जी के सौजन्यसे, तैयार है --
--" प्रवासी के गीत " पापाजी की सुप्रसिध्ध पुस्तक और खास उनके गीत " आज के बिछुडे न जाने कब मिलेँगे ? " जैसी अमर कृति से हिँदी साहित्य जगत से सँबँध रखनेवाले हर मनीषी को यह बत्ताते अपार हर्ष है कि, ' यह मेरा विनम्र प्रयास, मेरे सुप्रतिष्ठित कविर्मनीष पिताके प्रति मेरी निष्ठा के श्रध्धा सुमन स्वर स्वरुप हैँ --
शायद मेरे लहू मेँ दौडते उन्ही के आशिष , फिर हिलोर लेकर, माँ सरस्वती की पावन गँगाको, पुन:प्लावित कर रहे होँ क्या पता ?
जो स्वाभाविक व सहज है, उस प्रक्रिया को शब्द बँधन से समझाना निताँत कठिन हो जाता है --
" सृजन " --- स्वाभाविक व सहज है, उस प्रक्रिया को शब्द बँधन से समझाना उतना ही कठिन होजाता है --
"" सृजन " भी कुछ कुछ एसी ही दूरुह सी क्रिया है -- हो सकता है कि, आप जैसे उत्साही बुध्धीजीवीयँ के इस प्रयास से " सृजन - गाथा " - " यशो- गाथा " मेँ परिणत हो जाये !
आप भारत के छत्तीस गढ प्राँतसे आज हिँदी साहित्य के सवाँगीण विकासके प्रति सजग हैँ, क्रियाशील हैँ, कटिबध्ध हैँ - और आपका यह यज्ञ सफल हो, ये मेरी भी इच्छा है --
अस्तु: सस्नेहाषिश व बधाई !
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प्रश्न- आपकी रचना प्रक्रिया के बारे में बतायें । आप भारत के अलावा इन दिनों विदेश में बस गयी हैं । क्या प्रवासी संसार में आपकी रचनाधर्मिता प्रभावित नहीं होती ? यदि हाँ, तो कैसे ? जहाँ आप निवसती हैं, वहाँ का सृजनात्मक माहौल क्या है । खास कर हिन्दी, साहित्य लेखन के कोण में ।
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( उत्तर --2 ) : प्रवासी भारतीय अलग अलग परिस्थितीयोँ मेँ रहते हैँ -- सबका अपना अपना कार्य -क्षेत्र होता है - पारीवारिक जिम्मेदारीयाँ और अन्य सँगठन होते हैँजिनमे उनकी सक्रियता समय ले लेती है --
मेरी रचना प्रक्रिया, स्वाँत: सुखाय तो है ही, साथ साथ, विश्व - जाल के जरिये, असँख्य हिँदी भाषी वेब - पत्रिकाओँ व जाल घरोँ से मेरा लगातार सँबँध बना रहता है -- जैसे --
http://www.aparnaonline.com/lavanyashah.htmlhttp://www.nrifm.com/Remembering Pt
Narendra Sharma: Bollywood's greatest Hindi poet
Hindi poet Pt Narendra Sharma fought for India's independence and then went to Mumbai to write some memorable songs like 'Jyoti Kalash Chalke' and 'Satyam Shivam Sundaram'. Lata Mangeshkar revered him like her father. In this interview, first broadcast on Cincinnati local radio, his daughter Lavanya Shah remembers her legendary father. The All India Radio's entertainment channel was named by him as 'Vividh Bharati'. To listen
click here (Hindi)
A rare Photograph of Hindi's three great poets A rare photograph of 1940sSumitra Nandan Pant (seated), Harivansh Rai Bachchan (left) and Pt Narendra Sharma (right)
http://www.manaskriti.com/kaavyaalaya/smritidp1.stmhttp://www.hindinest.com/lekhak/lavanya.htmhttp://www.hindinest.com/bachpan/bodh.htmhttp://www.abhivyakti-hindi.org/phulwari/natak/ekpal01.htmhttp://www.boloji.com/women/wd5.htmhttp://www.abhivyakti-hindi.org/sansmaran/bachchan/patra_mool.htmhttp://www.abhivyakti-hindi.org/visheshank/navvarsh/vinoba.htmआजके युग का " गूगल " चमत्कारिक आविष्कार, आपको , अँतर्जाल पर, ' मेरा नाम, " लावण्या शाह " टाइप करेँगेँ तो तुरँत कई सारी मेरी लिखी सामग्री , आपके सामने, अल्लादीन के चिराग की तरह, सिर्फ चँद क्षणोँमेँ , आपके सामने, प्रस्तुत कर देँगीँ --
आज २१ वीँ सदी के आरँभ मे, लेप टोप के जरिये, समस्त जगत की गतिविधियोँसे जुडना आसान सा तरीका हो गया है
मेरे पति श्री. दीपकजी के साथ अक्सर कामके सिलसिले मेँ , यात्रा पर , लिखने पढने की सामग्री , मेरे साथ रहती है -- और विशुध्ध शाकाहारी, खानपान की सुविधा भी !! :-))
आजकल मैँ पापाजीकी कविताओँको गुजराती अनुवाद करती रहती हँ -- गुजराती अम्मासे विरासत मेँ मिली मेरी मातृभाषा रही है, और पापाजीने हम ३ बहनोँको गुजराती माध्यमकी पाठशाला मेँ ही रखा था -
उनका कहना था कि, " पहले, अपनी भाषा सीखलो, फिर विश्वकी कोई भी भाषा को सीखना आसान होगा " ---
मेरे इस उत्तर मेँ यह भी साफ है कि, पाश्चात्य जगत मेँ, अँग्रेजी का वर्चस्व है - भारत और चीनकी उन्नति ने इस समाजकी आँखेँ खोल दीँ हँ -
अगर भारत विश्व का तेजीसे सम्पन्न होता हुआ, विकासशील देश है तब, उसके वैभव व सम्पन्नता मेँ शामिल होना समझदारी का पहला कदम होगा----
परँतु, स्वयम भारत मेँ बदलाव जरुरी है -- भारत के महानगरोँसे पढ लिख लर शिक्षित वर्ग, जीवन यापन की दौड मेँ अक्सर विदेश ही पहुँचा है ---
एँजीनीयर, डोक्टर और तकनीकि विशेषज्ञ बहुधा ब्रिटन या अमरिका आकर तगडा वेतन पाना चाहते हैँ - भले ही, मनसे वे भारतेय सँस्कृतिसे विलग नही हो पाते -- फिर भी परिवार की सम्रुध्धि व खुशहाली के लिये, परदेस आकर बस जाते हैँ ..
.यह स्थिती आज बदलने लगी है और ये खुशी की बात है की आनेवाले कल को , प्रबुध्ध विश्व नागरिक जैसी अपनी सँतानोँ के पुनरागमन से और ज्यादा सम्पन्नता मिले !
मेरी यही प्रार्थना है कि, आनेवाला कल, ये शताब्दि, भारतीय सँस्क्रुति की गौरव - गाथा बने जिसका वर्णन हम और आप साथ साथ पढेँ --
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हिँदी लेखन जब तक हिँदी लिखनेवाले और बोलनेवाले, जहूँ कहीँ भी रहेँगेँ, अबाध गति से , आगे बढता रहेगा -- हाँ , आगामी पीढी हिँदी से जुडी रहती है या नहीँ -- इस बात से ही भविष्य के हिँदी लेखन का स्वरुप स्पष्ट होगा --~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
प्रश्न- अपने वर्तमान निवास राज्य में आप हिन्दी और हिन्दी साहित्य, संस्कृति और सभ्यता की स्थिति कैसे मापना चाहेंगी ? 21 वीं सदी में वहाँ हिन्दी का भविष्य कैसा होगा ?
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उत्तर - ३ ) जैसा कि मैँने आगे कहा है, हिँदी भाषा का विकास पहले तो हम भारतीय, भारत मेँ प्रशस्त करेँ -- राजधानी नई देहली मेँ ही, कितने वरिष्ठ नेता हिँदी को अपनाये हुए हैँ ? बडे शहेरोँ के अँग्रेजी माध्यम से पढे लिखे, लोग क्या हिँदी को फिल्मोँके या टी.वी. कार्यक्रमोँ से परे, की भाषा मानते हैँ ?
सोचिये, अगर आप खुद उसी वर्गके होते तब आपका झुकाव हिँदी साहित्य के प्रति इतना ही समर्पित रहता ? उत्तर भारत हिँदी भाषा का गढ रहा है ---
और हपारी साँस्कृतिक घरोहर को हमेँ, एक सशक्त्त और सम्पन्न भारत मेँ, एस २१ वीँ सदी मेँ, आगे बढाना है --
अमरिका और ब्रिटनकी अपनी अलग सभ्यता और सम्रुढ्ध भाषा है -- अमरीका के विषय मेँ इतना अवश्य कहूँगी कि, आज, एडी चोटीकी मेहनत से, विश्व का सर्विपरि देश बना हुआ है -- येहाँ, सँगीत की कई भिन्न शाखाएँ हैँ और हर सप्ताह, हर विधामेँ हजारोँ नए गीत रचे जाते हैँ -- लोक प्रसारण के माध्यमोँ का अपने हितमेँ, अपने प्रचारमेँ उपयोग करना इन सभी क्रियाओँ मेँ वे सिध्धहस्त हैँ --अफसोस की बात यह है कि एम्. टी. वी. MTV / CNN --
जैसे कार्यक्रमोँकी देखादेखी भारत के मीडीया भी अँधा अनुकरण कर रहे हैँ --
सर्वथा भारतीय विषय वस्तु और ढोस तत्वोँसे सँबँधित , सर्वथा भारतीय प्रकारके कार्यक्रम ही कालजयी बन पायेँगेँ --
जिसमेँ सार नहीँ वह, काल की लपटोँमेँ जलकर भस्मीभूत हो जायेगा - एसा मेरा मानना है --
हिँदी के भविष्य के प्रति मैँ आशावान हूँ परँतु, अटकलेँ नहीँ लगाऊँगी -- आखिरकार, आजके हिँगी भाषी क्या योगदान कर रहे हैँ और किश्व की परिस्थीती पर भी बहुत कुछ निर्भर रहेगा -- हमेँ तो यही याद रख कर कार्य कर्ते रहना होगा कि,
" कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन" ...
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प्रश्न- आप मूलतः गीतकार हैं । आपका प्रिय गीतकार (या रचनाकार) कौन ? क्यों ? वह दूसरे से भिन्न क्यों है ?
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उत्तर - ४ )
अगर मैँ कहूँ की, मेरे प्रिय गीतकार मेरे अपने पापा - , स्व. पॅँ नरेन्द्र शर्माजी के गीत मुझे सबसे ज्यादा प्रिय हैँ --
तो अतिशयोक्ति ना होगी --
हाँ, स्व. श्रेध्धेय पँतजी दादाजी, स्व. क्राँतिकारी कवि ऋषि तुल्य निरालाजी , रसपूर्ण कवि श्री बच्चनजी, अपरामेय श्री प्रसादजी , महान कवियत्री श्री. महादेवी वर्माजी, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी विभूतियाँ हिँदी साहित्य गगनके जगमगाते नक्षत्र हैँ जिनकी काँति अजर अमर रहेगी --
( क्यों ?? )
इन सभी के गीतोँ मेँ सरस्वती की वैखरी वाणी उदभासित है -- और सिर्फ मेरे लिये ही नहीँ, सभी के लियेउनकी कृतियाँ प्रणम्य हैँ ----
( वह दूसरे से भिन्न क्यों है ? ) -- भिन्न तो नही कहूँगी -- अभिव्यक्त्ति की गुणवत्ता , ह्रदयग्राही उद्वेलन, ह्रदयगँम भीँज देनेवाली , आडँबरहीन कल्याणकारी वाणी --- सजीव भाव निरुपण, नयनाभिराम द्र्श्य दीख्लानेकी क्षमता, भावोत्तेजना, अहम्` को परम्` से मिलवानेकी वायवी शक्त्ति ,शस्यानुभूति, रसानुभूति की चरम सीमा तक प्राणोँको , सुकुमार पँछीके , कोमल डैनोँ के सहारे ले जानेकी ललक....और भी कुछ जो वाणी विलास के परे है --
वो सभी इन कृतियोँ मेँ विध्यमान है --
जैसा काव्य सँग्रह " प्यासा ~ निर्झर " की शीर्ष कविता मेँ कवि नरेँद्र कहते हैँ,
: मेरे सिवा और भी कुछ है , जिस पर मैँ निर्भुर हूँ ~~ मेरी प्यास हो ना हो जग को, मैँ, प्यासा निर्झर हूँ " ~~
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प्रश्न- लंबे समय तक हिन्दी-गीतों को नई कविता वालों के कारण काफी संघर्ष करना पड़ा था । आप इसे कैसे देखती हैं । गीत के भविष्य के बारे में क्या कहना चाहेंगी ?
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( उत्तर - ५ )
नई कविता भी तो हिँदी की सँतान है -- और हिँदी के आँचल मेँ उसके हर बालक के लिये स्थान है -- क्योँकि, मानव मात्र को, अपनी अपनी अनुभूति को पहले अनुभव मेँ रच बसकर, रमने का जन्मसिध्ध अधिकार है - उतना ही कि जितना खुली हवा मेँ साँस लेनेका --
ये कैसा प्रश्न है की किसी की भावानुभूति अन्य के सृजन मे आडे आये ?
नई कविता लिखनेवालोँ से ना ही चुनौती मिली गीत लिखनेवालोँको नाही कोई सँघर्ष रहा ---
" किसी की बीन, किसी की ढफली, किसी के छँद कीसी के फँद ! "
~~ ये तो गतिशील जीवन प्रवाह है , हमेँ उसमेँ सभी के लिये, एकसा ढाँचा नहीँ खोजना चाहीये --
हर प्राणीको स्वतँत्रता है कि, वह, अपने जीवन और मनन को अपनाये -- यही सच्चा " व्यक्ति स्वातँत्रय " है -
बँधन तो निषक्रीयताका ध्योतक है --
और जब तक खानाबदोश व बँजारे गीत गाते हुए, वादीयोँमेँ घूमते रहेँगेँ,
प्रेमी और प्रेमिका मिलते या बिछुडते रहेँगेँ,
माँ बच्चोँ को लोरीयाँ गा कर सुलाया करेँगीँ
और बहने, सावन के झूलोँ पर अपने वीराँ के लिये सावनकी कजली गाती रहेँगीँ ...
या, पूजारी मँदिरमेँ साँध्य आरती की थाल धरे स्तुति भजन गायेँगेँ,
या गाँव मुहल्लेह भर की स्त्रीयाँ .....बेटीयोँ की बिदाई पर " हीर " गायेँगीँ, "......
गीत " ....गूँजते रहेँगेँ ....
ग़ीत प्रकृति से जुडी और मानस के मोती की तरह पवित्र भेँट हैँ -- उनसे कौन विलग हो पायेगा ?
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प्रश्न- हिन्दी के जानेमाने गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की बेटी होने का सौभाग्य आपके साथ है । आप स्वयं को एक गीतकार या पं.नरेन्द्र शर्मा जी की पुत्री किस रूप में देखती हैं ? और क्यों ?
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उत्तर - - ६ )
आपने यह छोटा - सा प्रश्न पूछ कर मेरे मर्म को छू लिया है -- सौभाग्य तो है ही कि मैँ पुण्यशाली , सँत प्रकृति कवि ह्रदय के लहू से सिँचित, उनके जीवन उपवन का एक फूल हूँ --
उन्हीँके आचरणसे मिली शिक्षा व सौरभ सँस्कार, मनोबलको हर अनुकूल या विपरित जीवन पडाव परमजबूत किये हुए है --
उनसे ही ईश्वर तत्व क्या है उसकी झाँकी हुई है -- और, मेरी कविता ने प्रणाम किया है --
" जिस क्षणसे देखा उजियारा,
टूट गे रे तिमिर जाल !
तार तार अभिलाषा तूटी,
विस्मृत घन तिमिर अँधकार !
निर्गुण बने सगुण वे उस क्षण ,
शब्दोँ के बने सुगँधित हार !
सुमन ~ हार, अर्पित चरणोँ पर,
समर्पित, जीवन का तार ~ तार !!
( गीत रचना ~ लावण्या )
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प्रश्न- अपने पिता जी के साथ गुजारा वह कौन-सा क्षण है जिसे आप सबसे ज्यादा याद करती हैं । आपके पिता जी के समय घर में साहित्यिक माहौल कैसा था ?
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उत्तर - - - ७ )
मेरे पापा उत्तर भारत, खुर्जा , जिल्ला बुलँद शहर के जहाँगीरपुर गाँवके पटवारी घराने मेँ जन्मे थे.
प्राँरभिक शिक्षा खुर्जा मेँ हुई - अल्हाबाद विश्वविध्यालयसे अँग्रेजी साहित्य मेँ M/A करनेके बाद,
कुछ वर्ष आनँद भवन मेँ अखिल भारतीय कोँग्रेस कमिटि के हिँदी विभाग से जुडे और नजरबँगद किये गए -
देवली जेल मेँ भूख हडताल से .. ( १४ दिनो तक ) ....
जब बीमार हाल मेँ रिहा किए गए तब गाँव , मेरी दादीजी गँगादेवी से मिलने गये - ---
वहीँ से भगवती बाबू (" चित्रलेखा " के प्रेसिध्ध लेखक ) के आग्रह से बम्बई आ बसे -
वहीँ गुजराती कन्या सुशीला से वरिषठ पँतजी के आग्रह से व आशीर्वाद से पाणि ग्रहण सँस्कार रम्पन्न हुए --
बारात मेँ हिँदी साहित्य जगत और फिल्म जगत की महत्त्व पूर्ण हस्तीयाँ हाजिर थीँ --
दक्षिण भारत कोकिला : सुब्बुलक्षमीजी, सुरैयाजी, दीलिप कुमार, अशोक कुमार, अमृतलाल नागर व श्रीमती प्रतिभा नागरजी, भगवती बाब्य्, सपत्नीक, अनिल बिश्वासजी, गुरु दत्तजी, चेतनानँदजी, देवानँदजी इत्यादी ..
..और जैसी बारात थी उसी प्रकार १९ वे रास्ते पर स्थित उनका आवास
डो. जयरामनजी के शब्दोँ मेँ कहूँ तो , " हिँदी साहित्य का तीर्थ - स्थान " बम्बई जेसे महानगर मेँ एक शीतल सुखद धाम मेँ परिवर्तित हो गया --
उस साहित्य मनीषीकी अनोखी सृजन यात्रा निर्बाध गति से ६ दशकोँ को पार करती हुई,
महाभारत प्रसारण १९८९ , ११ फरवरी की काल रात्रि के ९ बजे तक चलती रही ---
आज याद करूँ तब ये क्षण स्मृति मेँ कौँध - कौँध जाते हैँ ........................................................................................................................................................................................................................
( अ ) हम बच्चे दोपहरी मेँ जब सारे बडे सो रहे थे, पडोस के माणिक दादा के घर से कच्चे पक्के आम तोड कर किलकारीयाँ भर रहे थे कि, अचानक पापाजी वहाँ आ पहुँचे ----
गरज कर कहा, " अरे ! यह आम पूछे बिना क्योँ तोडे ? जाओ, जाकर माफी माँगो और फल लौटा दो "
एक तो चोरी करते पकडे गए और उपर से माफी माँगनी पडी !!!
-- पर अपने और पराये का भेद आज तक भूल नही पाए -- यही उनकी शिक्षा थी --
( ब ) मेरी उम्र होगी कोई ८ या ९ साल की - पापाजी ने, कवि शिरोमणि कवि कालिदास की कृति " मेघदूत " से पढनेको कहा -- सँस्कृत कठिन थी परँतु, जहीँ कहीँ , मैँ लडखडाती, वे मेरा उच्चारण शुध्ध कर देते -- आज, पूजा करते समय , हर श्लोक के साथ ये पल याद आते हैँ --
( क ) मेरी पुत्रा सिँदूर के जन्म के बाद जब भी रात को उठती, पापा , मेरे पास सहारा देते , मिल जाते -- मुझसे कहते, " बेटा, मैँ हूँ , यहाँ " ,..................
आज मेरी बिटिया की प्रसूती के बाद, यही वात्सल्य उँडेलते समय, पापाजी की निस्छल, प्रेम मय वाणी और स्पर्श का अनुभव हो जाता है ..
.जीवन अत्तेत के गर्भ से उदित होकर, भविष्य को सँजोता आगे बढ रहा है --
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प्रश्न- अपने पिताश्री के साहित्य-वैभव को किस तरह संरक्षण दिया जा रहा है ? आप या आपका परिवार निजी तौर पर इसमें किस हद तक समर्पित है ?
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