Thursday, February 22, 2007

५ सवालोँ के जवाब


१.आपकी सबसे प्रिय पिक्चर कौन सी है? क्यों?

वीडीयो जब निकलीँ तब शिकागो से पहली फिल्म खरीद कर देखी - मुगले -आज़म -
तो शायद वही रही होगी मेरी प्रिय फिल्म :
उम्दा सँगीत, खूबसुरत छायाँकन, मधुबाला जी का हुस्न, श्री दीलिप कुमारजी की अदाकारी , पृथ्वीराज कपूर के प्रभावशाली अकबर, पुत्र वियोग मेँ, व्याकुल महारानी जोधा के रुप मे - दुर्गाबाई खोटे की छवि,सँगतराश का विद्रोह गान, " जिँदाबाद, जिँदाबाद ऐ मुहब्बत, जिँदाबाद" .. के.आसिफ साहब का नगीना आज भी बेसाख्ता चमक रहा है ..

२.आपके जीवन की सबसे उल्लेखनीय खुशनुमा घटना कौन सी है ?

जितने बरस बीते हैँ, उनमेँ हमेशा, "कभी खुशी कभी गम / या / यूँ कहूँ कि, "थोडी खुशी, थोडा गम" ही हासिल हुआ है -
"जिस हाल राखे, राम गुँसाई, उस बिध ही रहिये रे मनवा, राम भजन सुख लयै"

--ये मैँने मेरे एक भजन मेँ लिखा है -जिसे, अपने जीवन मेँ निभाया भी है --

पर, २० अप्रल,२००६ के रोशन दिवस पर, बिटिया की सफल प्रसूति के बाद, मेरे नाती को हाथोँ मेँ उठाया तब, सोचा,
"ईश्वर! आपकी कृपा से , मैँने अपनी इतनी जीवन यात्रा, पूरी की है ..आज इस प्रसाद को पाकर धन्य हो गई !

यूँही, मेरी नैया को पार करो.." ..यह एक अनोखी अनुभूति रही ..

३.आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते/करती हैं?

सभी प्रकार के चिठ्ठे पढकर बहुत कुछ नया जानने को मिलता है -- हरेक की अपनी अलग विधा है - शैली है -- भद्दे मजाक, कटुता, छीछोरापन, दँभी वाक -बाण ना मुझे, न ही किसी और को पसँद आयेँगे -

फिर भी, व्यक्ति -स्वातँत्र्य की हिमायती हूँ --


४.क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?


"निखार ?? अब ये तो अपनी अपनी नजर का फेर है ;-)
हाँ, आँखेँ दुख जातीँ हैँ पर, हिन्दी मेँ लिखने का परिश्रम, सँतोष देता है --


५.यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे/चाहेंगी?

" भारत -भाग्य विधाता ...जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे "
...मुझे ऐसी सत्ता मिले तो क्या बदलूँ ?

अराजकता, स्वछता के लिये आग्रह व श्रम और उनसे भी उपर, स्त्री की गरिमा को बढावा मिले उसके लिये,
सार्थक प्रयास अवश्य करना चाहूँगी ---

अब मैँ इन ५ हिन्दी ब्लोगरोँ से यही ५ सवालोँ के जवाब सुनना चहूँगी ---------

अविनाश भाई : मोहल्ला : http://mohalla.blogspot.com/2007/02/blog-post_2364.html

मृणाल कान्त :http://thoughtsinhindi.blogspot.com/

मनोशी की मानसी : http://www.manoshichatterjee.blogspot.com/

श्रीश शर्मा : http://epandit.blogspot.

प्रमोद सिंह : http://cilema.blogspot.com/

" न हम होँगेँ न तुम होगे "





" न हम होँगेँ न तुम होगे "

ROME (AFP) - A pair of 6,000-year-old skeletons found by Italian archaeologists in a dying embrace will not be separated, team leader Elena Menotti has told AFP.
"We will do everything possible to preserve the bodies in the exact position of their grave,"
"There's no question of breaking their embrace."
The skeletons were found last week during digging in an industrial zone near the northern city of Mantua and the find will be displayed at the city's archaeological museum.
While scientists are still puzzling over how the pair died and why they were buried in this way, Menotti said their embrace was "testimony to a great feeling of love that has transcended time.
"For regardless of why they were buried in each other's arms, there had to have been feelings between them."

यह एक समाचार ने 'मुहब्बत " लफ्ज़ पर फिर एक बार सारा ध्यान केँद्रीत कर दीया !--

क्या कुछ नहीँ लिखा या कहा गया है इस एक शब्द पर !
अरे ..ढाई आखर है ना "प्रेम " का !
"प्यार" का भी एक से ज्यादा ही पडता है गिनती मेँ हिसाब
-पर " इश्क " किसी हिसाब से बँधा है कहीँ ?
..ये सुना होगा , कि,
" हीज़ाबे मुहोब्बत, हम उसको थे कहते, ना वो बोलते थे , न हम बोलते थे "
या फिर ये कि,
" मोहोब्बत की किस्मत बनाने से पहले, ज़माने के मालिक, तू रोया तो होगा "

उफ्फ
~

क्या और कहेँ ????

कल एक बेशकिमती तोहफा डाक से आया !

श्रीमान राधेक़ाँत दवे जी ने व श्रीमती कुसुम दवे जी ने एक सँगीत ओडीयो टेप भेजी -

नाम था " हुस्न -ए - जाँ : ~~सँगीत निर्देशक हैँ मुज़फ्फर अली -
गीतोँ को गा रहीँ थीँ छाया गाँगुली -
१) " यारो मुझे मुआफ रखो" ( मीर )
२) खूनेज करिश्मा नाज़ सितम ( नज़ीर अकबराबादी )
३) जब फागुन रँग ( नज़ीर)
४) पिया ब्याज प्याला ( कुतुब शाह) *( छाया व इकबाल सिद्दीकी )
५) निठुरे निठुरे..अँगना बुहारुँ पहन के कँगना * (ज़रीना बेगम )और अँत का गीत था ~
६) न तुम होँगेँ न हम होँगेँ .." ( नज़ीर) * ( रोली सरन और नवेद सिद्दीकी )


अँतिम गीत, बडी, सहजता से आरँभ हुआ ~
~शब्द / अलफाज़् यूँ घुल रहे थे मानोँ, ज़िन्दगी की हुबहु तस्वीर उभर रही हो !
~माशूका कह रही थी कि, ' आज हँस कर बोसा ले लो, प्यार से गले मिलो, चुहल करने के लिये, लतीफे सुनने सुनाने के लिये, आज का वक्त है, तो,
...मुहब्बत से पेश आओ हम से आकर मिलो, फिर न जाने, क्या हो ?

- न तुम होँगे न हम होँगेँ . ---

गीत कुछ इस तरह से दीलोदीमाग मेँ बसने लगा कि पता भी न चला कब आँखेँ नम हुईँ , न जाने कब दबी सिसकीयाँ रह रह कर, मन मसोस कर, गहरे, कहीँ धधकते ज्वालामुखी की तरह, रुह को झकझोर कर सँगीत के साथ साथ, एकाकार हो गईँ !

ये नज़ीर का कलाम था कि, सब कुछ ले डूबा !

मेरे जीवन के दाम्पत्य के क्षण, ३३ सालोँ का लँबा सफर, उससे पहले, १६ /१७ साल की आयु मेँ , अपने जीवन साथी से , पहली बार मिलना, उससे पहले, एक ही गुजराती स्कूल मेँ कक्षा १ से , उन्हेँ देखना, साथ साथ, बडे होना, बचपन की देहलीज को पार कर, वयस्क होना, फिर, परिवार के सभी से जान पहचान , एक दूसरे के घर पर , भोजन करना, गप्पे लडाना, शादी ब्याह, २ सँतानोँ के अभिभावक बनना ~

पुत्री सौ. सिँदुर का ब्याह, फिर कु. सोपान की मँगेतर कु. मोनिका से मिलना और अगले माह उनकी शादी है ~
~ ज़िँदगी, पलक झपकाती, किसी, तिलस्मी दुनिया से उतरी 'नाज़्नीन परी सी , मुस्कुराती, शरारत से, आँखेँ मुँद कर, हल्के से,माथा चूमकर, कह रही है,

" बता मैँ कौन हूँ ?" --

इतना ही दील से निकला,


" तू मेरी सहेली है....रुह की परछाईँ है " ---

--- लावण्या

Tuesday, February 20, 2007

मौन गगन दीप
------------------
विक्षुब्ध्ध तरँग दीप,
मँद ~ मँद सा प्रदीप्त,
मौन गगन दीप !
मौन गगन, मौन घटा,
नव चेतन, अल्हडता
सुख सुरभि, लवलीन!
झाँझर झँकार ध्वनि,
मुख पे मल्हार
कामना असीम,
रे,कामना असीम, !
मौन गगन दीप!
चारु चरण, चपल वरण,
घायल मन बीन!
रे, कामना असीम !
मौन गगन दीप!
वेणु ले, वाणी ले,
सुरभि ले, कँकण ले,
नाच रही मीन!
जल न मिला, मन न मिला,
स्वर सारे लीन!
नाच रही मीन
!मौन गगन दीप!
सँध्या के तारक से,
मावस के पावस से,
कौन कहे रीत ?
प्रीत करे , जीत,
ओ मेरे, सँध्या के मीत!
मेरे गीत हैँ अतीत.
बीत गई प्रीत !
मेरे सँध्या के मीत
-कामना अतीत
रे, कामना अतीत !
मौन रुदन बीन,
रे,कामना असीम, !
मौन गगन दीप!
~~ लावण्या

प्रलय
देख रही मैँ, उमड रहा है, झँझावात प्रलय का !

निज सीमित व्यक्तित्त्व के पार,उमड घुमड, गर्जन तर्जन!

हैँ वलयोँ के द्वार खुले,लहराते नीले जल पर !

सागर के वक्षसे उठता, महाकाल का घर्घर स्वर,

सृष्टि के प्रथम सृजन सा, तिमिराच्छादीत महालोक

बूँद बनी है लहर यहाँ, लहरोँ से उठता पारावार,

ज्योति पूँज सूर्य उद्`भासित, बादलके पट से झुककर

चेतना बनी है नैया, हो लहरोँके वश, बहती जाती ~

क्षितिज सीमा जो उजागर, काली एक लकीर महीन!

वही बनेगी धरा, हरी, वहीँ रहेगी
, वसुधा, अपरिमित!

गा रही हूँ गीत आज मैँ, प्रलय ~ प्रवाह निनादित~

बजते पल्लव से महाघोष, स्वर, प्रकृति, फिर फिर दुहराती!

~~ लावण्या

Saturday, February 17, 2007

B/W & Sepia photography






Color pictures seem more alive but Black & White seem to hold on to the TIME with each moment frozen in expressions of the subject --

My " Amma" & her ART






These are the 2 Oil color paintings done by my Amma Late Sreemati Susheela Narendra Sharma .........& 2 of her pictures that I cherish !

I miss Amma so much .......I'm all that she made me !

& I'm so proud to be her child.

પરમ પિતા / Param Pita ( a Gujrati poem of mone )


પરમ પિતા ( Param Pita was published in Varshank Magazine )

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હિમાલય ની ટોચ પર બેઠો તપસ્વી,
હિમખઁડોને,દૂર દૂર સુધી,
ફેલાયેલાઁ શ્વેત હિમને સાચવી રહ્યો છે!
ભારત તરફ વહેતી, નદોનાઁ નીરને,
યુગયુગોથી, એમજ, અટૂટ, વહાવી રહ્યો છે !
હે શિવ! હે પરમ પિતા, તુ જ,
નીલકઁઠ, શિવમ` સત્ય ને,
પુરક પરમાત્મા પણ તુ જ છે!

કાળનાઁ વહેણ વહી ગયાઁ વર્ષોઁ થી
ભૂખઁડો, જળાશયો, નદીઓ, રહ્યુઁ,
તમામ એમજ, ફક્ત, માનવી!
ક્યાઁ જવા મથી રહ્યો છે તુ ?
તારાઁ અણુશસ્ત્રો, તેથી ય વધુ,
ઘાતકી ભાવો, હ્ર્દયના છે!
હિમાલયની હિમાચ્છાદીતને,
પવિત્ર શીતળ તળેટીમાઁ,
પઁજાબને ગુજરાત, આસામ,
ભારત, ભડકે બળી રહ્યુઁ છે!


ઐક માનવી, પલટાવે છે,
ભાગ્ય-લાખો મેદનીનાઁ અચાનક !
પાપ શુઁ કહેવુઁ, નરક ખડુ થયુઁ છે!
સ્વાર્થનો દાવાનળ, મનુષ્યનાઁ
આટલા નાના હ્રદયમાઁ, કેવો, વિશાળ!
ક્યાઁથી ક્યાઁ લઈ ગયાઁ, મુજને ને તમને,
ને ક્યાઁ આપણે, જઈ રહ્યાઁ છે!
રઁગો હતાઁ બધા ગુલાબી, ઝીણાઁ,
વાદળોનાઁ ને કુસુમનાઁ, સાવ કોમળ
લાલને કાળો બધાને પી રહ્યો છે!
શિવ! પ્રભુ, ફરી પીવો પડશે,
હળાહળ -જે ઉત્પન્ન થયો છે!


તમારે,હિમાલયની ટોચેથી,
ભારતનુ, કલ્યાણ કરવાનુ છે!

--લાવણ્યા

Friday, February 16, 2007

पौराणिक वँशावलीयाँ

ॐ गायत्री देवी
OM GAYATRI DEVI

पौराणिक वँशावलीयाँ :
भारतीय वाङमय से जो मैँ सृष्टि की उत्पति के बारे मेँ समझ पाई हूँ वह प्रस्तुत है :~~
स्वम्भू भगवान ने सर्व प्रथम जल की सृष्टि की - जल ही नीर है और उसमेँ शयन करनेवाले , वे, नारायण कहलाये - उसी जलमेँ एक स्वर्ण मय अण्ड उत्पन्न हुआ .दीर्घकाल के पश्चात उसी मेँ स्वयम्भू ब्रह्माजी उत्पन्न हुए. उस अण्ड के दो टुकडोँ से ध्यूलोक और भूलोक बने. उनके बीच, अवकाश की सृष्टि , ब्रह्माजी ने की. फिर जल के उपर तैरती पृथ्वी को स्थापित किया , दसोँ दिशाएँ बनाईँ फिर सात भावोँ से प्रेरित , सात प्रजापतियोँ को उत्पन्न किया. वे हैँ - " मरीचि, अत्रि, अँगिरा, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु व वसिष्ठ - ये सात भी ब्रह्मा हैँ और ब्राह्मण तद्पश्चात, रोष से रुद्र प्रकट हुए !और पूर्वजोँ के पूर्वज, "सनत कुमार " उत्पन्न हुए - स्कन्द व सनत कुमार , दोनोँ अपने तेज का सँवरण करते रहते हैँ - फिर, विध्युत, मेघ, इन्द्रधनुष,पक्षी तथा पर्जन्य रचे - तद्पश्चात " रोहित "यज्ञ सिध्धि के लिये ऋक्`, यजु, साम बनाये --फिर मुख से देवता और वक्ष स्थल से पितृ गण बनाये --फिर उपसेन्द्रिय से मनुष्य व जँघा से असुर बनाये आगे, "साध्य" नामक प्राचीन देवोँ को बनाया तद्पश्चात अपने ही शरीर के दो भागोँ मेँ से एक से पुरुष व दूजे से नारी होकर मैथुनी प्रजा की सृष्टि की -भगवान विष्णु ने विराट पुरुष ब्रह्मा को रचा और ब्रह्माने पुरुष रचा -- उसी प्रथम "वैराज" पुरुष को हम, "मनु" कहते हैँ --उनकी पत्नी थीँ " शतरुपा" --

आपव प्रजापति को "प्रथम-सर्ग" कहते हैँ - और मनु की योनिजा प्रजा को द्वीतीय सर्ग कहते हैँ स्वायम्भुव मनु के चतुर्युगोँ को "मन्वन्तर" कहते हैँ - जिनके नाम हैँ " सत युग, त्रेता, द्वापर व कलि -- मनु व शतरुपा ने "वीर" को जन्म दीया - वीर ने काम्या से "प्रियव्रत और उत्तनपाद को जन्म दीया -- कर्दम प्रजापति की भी काम्या नामक पुत्री ने "प्रियव्रत" से विवाह कर, सम्राट, कुक्षि, विराट, व प्रभु, ये चार पुत्र उत्पन्न किये -प्रजापति अत्रि ने उत्तानपाद को पुत्र रुप मेँ ग्रहण कीया - उनके चार पुत्र पत्नी सुनृता, जो धर्म की पुत्री थीँ - उन से हुए -जिनमेँ बालक ध्रुव थे ूसरे पुत्र थे - कीर्तिमान्` , शिव व अयस्पति - ध्रुव की भक्ति से प्रसन्न होकर, नारायण ने उसे " सप्तृषियोँ से उत्तर दिशा मेँ एक स्थिर व अचल स्थान दीया ध्रुव ने शम्भु नामक पत्नी से विवाहोपराँत "श्लिष्टि " व "भव्य" नामक दो पुत्र पाये --श्लिष्टि और सुच्छायासे "रिप्य्" रिपुज़्न्जय, पुण्य, वृकल, वृकतेजा, जन्मे - आगे , रिपु के पत्नी बृहती से, "चाक्षुस " पुत्र हुए -- चाक्षुस व पत्नी पुष्करिणी से "मनु" नामक पुत्र हुए - मनु ने अरण्य की पुत्री नडवाला से ब्याह कीया व उनके १० पुत्र हुए -जिनके नाम हँ -- १) उरु, २) पुरु ३)शतध्युम्नु ४) तपस्वी ५) सत्ववान्`६) कवि ७) अग्निष्टुत ८)अतिरात्र ९)सुधम्न्यु १०) अभिमन्यु -- -
उरु व अग्निकन्या से अँग, सुमना, क्रतु, अँगिरा गय, उत्पन्न हुए - अँग ने मृत्यु की पुत्री सुनीथा से ब्याह कर "वेन" को जन्म दीया जो बडा अत्याचारी था पर मुनियोँ ने उसके दाहिने हाथ से पृथु को पैदा कीया जिसे क्षत्रिय कहा गया और वह पृथ्वी की रक्षा करने लगा -पृथु प्रथम भूपति कहलाते हैँ वे राजसूय यज्ञ मेँ अभिषिक्त हुए उन्हीँ के यज्ञ से सूत व मागध प्रकट हुए - पृथु के "पालित " व "अन्तर्धान" २ पुत्र हुए - अन्तर्धान ने शिखण्डिनी से "हविर्धान" पुत्र प्राप्त कीया हविर्धान ने अग्नि पुत्री "घिषणा" से प्राचीन, बर्हि, शुक्ल, कृष्ण, व्रज,और अजिन सँतानो को पाया --महीपति कहलाये "प्रभु प्राचीन बर्हि ने समुद्र की पुत्री सवर्णा से विवाह कीया जिनके दसोँ पुत्रोँ का नाम " प्रचेता" था -- वे सारे धनुर्वेद के पारगामी थे -वृक्षोँ के जलने पर वृक्ष अँशवाली कन्या "मारिषा" को सोम ने छिपा लिया था - उसी से ब्याह कर प्रेचेता ने दक्ष को जन्म दीया ० दक्षने १० कन्याएँ धर्म को, १३ कश्यप को, और नक्षत्र नामवाली २७ कन्याएँ चँद्रमा को दे दीँ --


--लावण्या

Thursday, February 15, 2007

बर्फ़


बर्फ़ ही बर्फ बिछी हो जमीँ पर,तब,
इन हौसलोँ का क्या होगा ऐ, मेरे दील !
हमने भी सुना था, कि,खुद को इतना तू कर बुलँद,
कि खुदा पूछे कि,' ऐ बँदे,बता, तेरी रजा क्या है?'
वीराँ लग रही जमीँ है तो क्या है ?
सब कुछ बदल जायेगा,जो उसकी रजा है !
जो हरी घास बिछी थी,कालीन -सी,
जमीँ पे मखमली,आज ढँकी है ,
सुफेदी ओढ,फिर फूल उठेँगेँ,
उन सूखे दरख्तोँ पे,मुस्कुराते,
हजार रँगोँ मेँ !
है करिश्मा ये तेरा कुदरत,
खुदा का रहमो करम है ये,
हैँ जब तक ऊसूल तेरे कायम,
ना हौसलोँ को टूटने का डर है !
बहारेँ फिर लौट आयेँगी -
चमन गुलजार बाग -बाग होगा
इसकी खुशी है मुझको एय खुदा
आबाद यूँ ही, तेरा रहमो करम होगा ! ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

-- लावण्या

"Pity the Nation", by Khalil Gibran


Pity the nation that is full of beliefs and empty of religion.
Pity the nationt hat wears a cloth it does not weave,
eats a bread it does not harvest,
and drinks a wine that flows not from its own wine-press.
Pity the nation that acclaims the bully as hero,
and that deems the glittering conqueror bountiful.
Pity a nation that despises a passion in its dream,
yet submits in its awakening.
Pity the nation that raises not its voice
save when it walks in a funeral,
boasts not except among its ruins,
and will rebel not save when its neck is laid
between the sword and the block.
Pity the nation whose statesman is a fox,
whose philosopher is a juggler,
and whose art is the art of patching and mimicking.
Pity the nation that welcomes its new ruler with trumpeting,
and farewells him with hooting,
only to welcome another with trumpeting again.
Pity the nation whose sages are dumb with years
and whose strong men are yet in the cradle.
Pity the nation divided into into fragments,
each fragment deeming itself a nation.

Fall turns into Winter & spring awaits ...in the wings !

Yesterday was Valentine's Day ....as it is "celebrated " by so many, the world over as a special, symbolic day to honor "LOVE" with Flowers !!
Who can dislike Flowers ? Who does not love to be "in- Love" ?
It is such a Universal theme ....so in this day of mass communication & media over drive, it was bound to spread across the Globe !
Folks have found out the Origin of Saint Valentine who was a priest in 1700 & used to secretly , unite couples into matrimony even though the King was against the soldiers marrying instead of marching off into battlefields !

Aah ! The sheer agony & ecstasy ....of romantic interludes & escapades
the stuff of Mills & Boon romanctic novels ...of my youth !

How clandestinely , romantic it sounds , even @ the turn of 21st century
So the mass merchandising by the Sale & distribution of Cards, flower bouquets, gifts of perfume & expnsive colognes & jewelery & pleasure toys herald the " first Peep" of the " Spring " as it is awaiting
....as Fall turns into a " Yesterday " & Winter into a grim " Today "...!!

FALL

Leaves are falling all around,
Make a "crunch" upon the ground;
Orange and yellow, green and red,
Change their colors when you're in bed.
Many people, so they say,
Like their colors in disarray;
Red and yellow, orange and green,
Make a lovely color scheme.
On the tree are many colors,
But on the ground
Are their brown brothers;
Green and red, orange and yellow,
Really do amaze a fellow.
WINTER

it looks like a winter post card here where i live in the staid , serene mid American city by the Ohio River which has been established in 1787 & is considered the " Gateway to Freedom " -- the Black Slave as he escaped the Rigid South found the first air of Freedom upon entering this city !

Here as i peer from my window, i see that all the bare branches of trees are covered inch by inch with pure & soft ICE !

It was the fluffy , soft kind of Snow but then Sun arose & the snow which had clung all its delicate tennacles on the bare brown branches has turned into sparkling Crystals ;-)

No one but NATURE at its best can creat such scenes !!
-- it is soooo cold outside
-- but with a masala chai in hand, it looks surreal & lovely -- Sigh !!
Like a perfect scene from an album of Winter's best :
" A lovely Picture Post Card " ..........

I await the arrival of SPRING & multitude hues of FLOWRS to Bloom forth with all its pristine Glory !!
" Life is a Merry ~ go ~ round" ........what goes up, must come down !

Tuesday, February 13, 2007

ज़य जयति भारत भारती !


The "kavi - sammelan" / "poetry recital" @ the Indian Counsulate/ Bharatiya Dootawas , last Fri /( 9th Feb. )
went off very well --


I was invited as the Mukhya Atithi / chief Guest ! Yes !!
I was overwhelmed by this kind gesture by Dr JayRamanji who is the Chancellor of Bhartiya Vidya Bhavan NY shakha !
Just before the Kavi Sammelan began, Smt. Ambalika Mishraji took me aside & taped a short Radio Interview on the poem i wished to recite
Ambalika ji had met my Papa, @ Jammu as a young girl & worked for AIR ( btw the name Aakashwani, Hawa Mahal, Manjusha, Man Chahe Geet , Gajra, Bandan -vaar are all given to the various programmes of Vividh Bharti by Papa ji the poet par excellance - Pandit Narendra Sharma in his younger days ) & Ambalika ji now works for UN - Hindi News Services & also for a NY Radio show.
I met lotss of very prominent people --
like Dr Swadesh Ranaji, who recited a beautiful Urdu gazal of hers, Dr Anjana Sandheer who sings like a professional singer & has learnt classical music from Banne Nawab Khaan saab ?
( i think ...but will ask the name once again to her, next time we chat ) , She teaches Hindi @ the prestigeous IVY league Columbia Uni no less !!
My My !!

Poetess ( who teaches HINDI @ YALE ) Shree Seema Khurana a pretty Lady with a sweet smile & equally sweet voice read her 2/3 poems
-- Rajni & Anoop Bhargava ji both excellent Hindi poets , kindly hosted us ( Me & Deepak ) & spoke
modern , meaningful poems --
Dr.Bindeshwari Aggarwal ji also teaches Hindi @ NYU
-- & many many others --

They gave me Geeta Gyaneshwari's translation from Marathi to Hindi by --
Dr.Shreemati Urmila Jaamdar
( I'm looking forward to reading that )

this book was a gift handed to me in front of 3 TV channel cameras by the Counsuel General for Education , a sweet & shy young lady named Reenat Sidhdhu !

I was the 4 th poet invited n recited a Ganesh shloka in sanskrit - -
" वक्रतुँड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ

निर्विघ्नँ कुरु मे देव शुभ कार्येषु सर्वदा "

" then i recited a short " Bharat Rastra vandana "

--- which was liked by all -- the words are so pure & awe inspiring -- listen : ~~

ज़य जयति भारत भारती ,
ज़य जयति भारत भारती !

अकलँक श्वेत सरोज पर वह ज्योति देह विराजती !

ज़य जयति भारत भारती,
ज़य जयति भारत भारती !
नभनील वीणा स्वरमयी
रविचँद्र दो ज्योतिर्कलश
है गूँज गँगा ज्ञानकी
अनुगूँज मेँ शाश्वत सुयश
हर बार हर झँकार मेँ
आलोक नव्य निखारती !
ज़य जयति भारत भारती !
ज़य जयति भारत भारती !

हो देश की भू उर्वरा,
हर शब्द ज्योतिर्कण बनेँ,
वरदान दो माँ भारती ,
जो अग्नि भी चँदन बने !
शत नयन दीपक बाल,
भारत भूमि करती आरती!
ज़य जयति भारत भारती
ज़य जयति भारत भारती !

रचियता: स्व.पँडित नरेन्द्र शर्मा प्रेषक: लावण्या
( here is the link )


http://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/mera_bharat/mera_bharat08.htm

then I recited a Hindi poem of mine:
( written on: April.10.1989 )

" Mera Bharat pyara "

" हम भारतीय जन मन मेँ
कहीँ गँगा छिपी हुई है !
-आत्मा मेँ श्री राम हैँ
श्रीमुख पे सीता माँ की छाँव है !
है बाजुओँ मेँ श्री, लक्ष्मण
नयनोँ मेँ श्याम -कृष्ण हैँ
अधरोँ पे श्री राधिका है
कानोँ मेँ शिव -स्वर्ण हैँ !
माटी की है फिर भी काया,
चँदन सा सुगँधित काष्ठ है
बहती है श्वास बनकर,
मलयानील सुरभी- सी !
रात्रि मेँ थका हुआ लहू ही,
बन जाता है यमुना जल,
दीर्घ बन कर के शिराएँ
बस जाती ये घाटीयाँ !

हैँ उच्च आकाँक्षाएँ ,
हिमगिरि सी विध्यमान,
बने विँध्याचल -सुमेरु,
कटी मेखला समान !
पाँवोँ को पखारते हैँ,
त्रिविध वर्ण सागर,
रत्नाकर के रत्न सारे,
निछावर,माँ, तेरे पग पर!

माँ भारती मेरी प्यारी !
हे अम्बिके, भवानी !
हे वीर प्रसविनी - माँ
हे, जगदानन्दायिनी, तारिणी!
हे माँ, तुझे शत नमन है!
शारदा, सुषमा मनविहारिणी !
हे लक्ष्मी -पति की प्यारी ,
हे पृथा पुण्य शालिनी माँ !
तुझे शत नमन है ~
तुझे शत नमन है ~
तुझे शत नमन है ~

रचनाकार: लावण्या


& a love -- poem of papa

--- " aaj ke bichude na jane kab milenge" -- link to read it is here ,

I was glad to hear the applause & approval by the august audience & i was teary eyed when Dr Jay Ramanji told me next morning that, " Tumne apne Pitaji ka naam roshan ker diya"
mujhe santosh hai ki meri , Pitru - Bhakti sweekar ho gayee !
aur Meri maati ne apne UDGAM ko Pranaam kiye !
Bharat Maa ko Shat shat Pranaam !

Monday, February 05, 2007

आम्रपाली - भाग १० - "पारस -स्पर्श"

आम्रपाली
दोहा: " मोरे तुम प्रभु गुरु पितु माता जाऊँ कहाँ तजि पद जल जाता
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहु सो तेहि मिलत न कछु सन्देहू "
आज आम्रपाली की आत्मा बैचेन है
-- लिच्छवी नगरी की सुप्रसिध्ध सौँदर्य सामाज्ञी , नगर वधू आम्रपाली उदास है
उसे अपने पैरोँ पे बँधे घूँघरु बिच्छू की तरह दीखाई दे रहे हैँ - उसे काटने के लिये मानोँ उतावले हुए हैँ-
उसके काले काले केशोँ मेँ बँधी वेणी के फूल, गुलाब व मोगरे, उसे सर्प के समान दीखाए दे रहे हैँ
- झूँझला कर, वह वेणी को उत्तर फेँकती है - उनीँदी आँखोँ मेँ कजरा सूख चला है - कँकण ध्वनि से आम्रपाली के कान वेदना का अनुभव कर रहे हैँ
उँगलियोँ मेँ फँसा कँठहार , बार बार वह घूमाती है
- उद्विग्नता से मणियोँ को तोड देती है -
- हार थक कर वह चँदन की पीठिका पर बैठ जाती है
आम्रपाली : " मैँ, लिच्छवी साम्राज्य की कुलवधू, आम्रपाली !
" मैँ, अजात शत्रु की प्रेमिका आम्रपाली !"
" मैँ, स्वर्ण व रजत से तौली जानेवाली आम्रपाली !
मैँ, जीवन को भरे हुए, मादक प्याले की तरह पीनेवाली, आम्रपाली !
" आज, मैँ, आम्रपाली क्यूँ इतनी उग्विग्न हूँ ?
क्या है ये जीवन ? क्योँ है है ये जीवन ? मेरा अस्तित्त्व क्या है ?
आम्रपाली कौन है ? रुपजीविका ?
रुप, मोह, प्रेम, लालसा, वासना, सुख और दु:ख , भावनाएँ क्यूँ आतीँ हैँ जीवन मेँ ? मैँ आज इनका उत्तर चाहती हूँ --"
तभी एक चेरी ( दासी ) आकर प्रणाम करती है --
मँजरी : " देवी की जय हो ! नगर के बाहर, आम्रवन मेँ तथागत का आगमन हुआ है -- चलेँगीँ क्या प्रभु के दर्शन को? "
आम्रपाली: " कौन ? गौतम बुध्ध ? तथागत का आगमन सही समय पर हुआ है -- वैशाली ग्राम के धन्य भाग्य जो प्रभु पधारे ! क्या मैँ किसी अज्ञात सँकेत की प्रतीक्षा मे थी ? मँजरी, कई राज पुरुषोँ को मैँने देखा है -- परँतु, तथागत के दर्शन अवश्य करना चाहूँगी -- चलो मँजरी, इसी क्षण चलो -- "
दोनोँ उसी दिशा मेँ चल पडे जहाँ एक पेड के नीचे, नेत्र मूँद , भगवान बुध्ध बैठे हैँ - आम्रपाली ने समीप जाकर चरण छूए - वो रो रही है -- एकटक बुध्ध भगवान की शाँत सौम्य , सरल मूर्ति को देखती रही -
आम्रपाली: " प्र्भु ! प्रभु ! नेत्र खोलिये - प्रभु ! "
बुध्ध : ( आँखेँ खोलते हैँ -मुस्कुराते हैँ ) " देवी ! स्वस्थ हो ! "
आम्रपाली : " प्रभु, आपकी वाणी का सम्मोहन असँख्य राग रागिनियोँ से अधिक मधुर है - आपका आर्जव, नेत्रोँ की करुणा, तथा उन्नत ललाट का तेज अपार है ! मैँ आम्रपाली, आज पाप की नगरी छोड , आपकी शरण लेती हूँ "
बुध्ध: " देवी ! प्रथम अपने मन का समाधान करो ! "
इतना कहते बुध्ध ने उसका माथा सहलाया
-- आम्रपाली फुट फुट कर रोने लगी --
आम्रपाली : " हे थथागत ! अपके नयनोँ की कोर मेँ , वात्स्लय के अश्रु कैद हैँ ! है, दीव्यात्मा ! आपकी अथाह करुणा ने मेरे मन के मैल को धो दीया "
बुध्ध: " जीवन भटकाव का नाम नहीँ ठहराव है जीवन ! उसी से परम शाँति की उत्पत्ति होती है "
बुध्ध के भिक्खु बोलते हैँ -
" बुध्धँ शरणँ गच्छामि, धम्मम शरणँ गच्छामि, सँघम शरणँ गच्छामि, "
आम्रपाली हाथ जोड कर, झुक कर दुहराती है --
-" बुध्धँ शरणँ गच्छामि, धम्मम शरणँ गच्छामि, सँघम शरणँ गच्छामि, " -

प्रभु ने पतिता को उबार लिया उसे धर्म से नाता जोडना सीखाया - पारस स्पर्श होने से लोहा , लोहा नहीँ रहता , खरा सोना बन जाता है --
तभी बाबा तुलसी दास जी ने राम चरित मानस के अँत मेँ ये गाया है कि,
" मैँ जानौउँ निज नाथ सुभाऊ, अपराधिहे पर कोह न काऊ
अब प्रभे परम अनुग्रह मोरे, सहित कोटि कुल मँगल मोरे,
दैहिक दैविक भौतिक तापा , राम राज नहिँ काहुकि ब्यापा
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती, जासु कृपा नहिँ कृपा अघाती
जिन्ह कर नाम लेत जग माँही, सकल अमँगल मूल नसाँही !
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~-- " पारस - स्पर्श " : लेख मालिका : रचना : -- लावण्या


कुँती / पृथा - भाग - ९ - पारस - स्पर्श



कुँती / पृथा
दीन दवालु बिरदु सँभारी हरहु नाथ मम सँकट भारी ,मँगल भवन अमँगलहारी, उमा सहित जेहि जपत पुरारि द्रवहु सो दसरथ, अजिर विहारी !
बोलो,राम कृष्ण राम कृष्ण हरि हरि , राम कृष्ण राम कृष्ण हरि हरि

यदुवँश के शूरसेन राजा के वासुदेव नामक पुत्र व पृथा नाम की कन्या सँतान थीँ - शूरसेन की बहन, कुँतीभोज नामक राजा से ब्याही गईँ थीँ --
कुँतीभोज स्वयम नि: सँतान थे सो, पृथा कुँतीभोज को सौँप दी गई
- उसके बाद सभी पृथा को " कुँती " कहकर पुकारने लगे
- बडे लाड प्यार से कुँती , कुँतीभोज के महल मेँ बडी होने लगीँ
- एक दिवस महाक्रोधी, ऋषि दुर्वासा कुँतीभोज के महलोँ मेँ पधारे
-- कुँवारी कन्या कुँती ने बडे मनोयोग से दुर्वासा की सेवा की --
दुर्वासा : कुँती बेटी ! मैँ स्नान करके आता हूँ - तुम मेरे भोजन की व्यस्थथा कर लो !"
कुँती : " जो आज्ञा ऋषिवर ! "
कुछ देर बाद दुर्वासा लौटे - भोजन तैयार था परँतु कुछ ज्यादा गर्म था - तो, दुर्वासा ने गर्म थाली को कुँती की पीठ पर रखा
- कुँती अपने आँसू पीकर , उस थाल की उष्णता सहन कर गईँ
- ये देखकर, प्रसन्न हुए दुर्वासा ने, कुँती को, देवोँ को बुलाकर, उन्हेँ वश मेँ करने का एक गुप्त मँत्र दे दिया और ये भी सावधान कर दीया कि, इस मँत्र को यूँ ही व्यर्थ मेँ ना कहा जाये -

एक दिन कौतुहलवश कुँती ने सोचा, ' मैँ इस मँत्र की शक्ति को परखना चाहती हूँ '
- सामने सूर्य देवता पूरी प्रचण्डता के साथ प्रकाशित थे
- सो, कुँती ने मँत्र पढा और सूर्य देव को बुलावा भेजा !
अचानक, सूर्य देव, कुँती के समक्ष उपस्थित होगए
- प्रसाद स्वरुप, सूर्य देव पिता बने और बिन ब्याही कुँती एक दीव्य बालक की माता बन गई !
प्रसाद या आशीर्वाद भी मनुष्य को, सोच समझकर उपयोग मेँ लेना चाहिये --
अन्यथा नहीँ -
अब कुँती क्या करती ? रोते रोते, कुँती ने, लोकलाज के भय से, मानहानि की आशँका से, उस दिव्य बालक को, एक पिटारे मेँ रखकर, नदी मेँ बहा दिया !
यही बालक आगे जा कर, महारथी कर्ण बना !
कुँती का विवाह पाँडु से हुआ -- जिन्हे, पीलिया या पाँडु रोग था
- स्त्री समागम से उनको मृत्यु का भय था
-- उन्होँने अपनी पत्नी कुँती को कहा कि,
" हे महारानी कुँती ! स्त्री समागम से मेरी मृत्यु निस्स:देह होनी है -वँश आगे न बढने से मुझे बडी ग्लानि हो रही है ! "
तब, कुँती ने उन्हेँ " दैवीवशीकरण मन्त्र " की बात बतलाई
-- पाँडु की आज्ञा से कुँती ने ,
धर्मराज से - > युधिष्ठिर,
वायु देव से - भीम,
इन्द्र से -> अर्जुन,
प्राप्त किये -
युधिष्ठिर , पाँडु के बडे भ्राता, धृतराष्ट्र के ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन से पहले जन्मे थे और कुरुवँश की राजगद्दी के वारिस थे
- कुरुक्षेत्र युध्ध की करुण समाप्ति के बाद, माता कुँती ने युधिष्ठिर से कर्ण का श्राध्ध करने को कहा
-- ये रहस्य भी बतलाया कि, "कर्ण पाँडु भाइयोँ मेँ सबसे बडे, सहोदर पुत्र थे" --- युधिष्ठिर को बहोत पीडा व ग्लानि हुई - उन्होँने श्राप दीया ,
कि, " आज के बाद किसी स्त्री के मन मेँ कोई गुप्त बात रह न पायेगी " -
- अत्यँत दुखसे क्रँद करतीँ अपनी बुआ कुँती के शीश पर श्री कृष्ण ने अपना वरद्` हस्त रखा और उन्हेँ साँत्वना दी
-- श्री कृष्ण के पवित्र " पारस - स्पर्श " ने कुँती के पाप धो दिये
- वे महारानी गाँधारी व धृतराष्ट्र के साथ, तपस्या करने वन चलीँ गईँ -
" सब जानत प्रभु, प्रभुता सोई, तदपि कहे बिनु, रहा न कोई "

कैकेयी / मँथरा की जोडी : भाग - ८- - पारस- स्पर्श


कैकेयी / मँथरा की जोडी :
दोहा: भरत सरिस को राम सनेही, जग जपे राम, राम जपे जेहि
सुमति कुमति सब के उर सही, नाथ पुराण निगम अस कहीँ जहाँ समति तहँ सँपत्ति नाना, जहाँ कुमति तहँ विपत्ति निदाना
आज अयोध्यापुरी, इन्द्र की अलकापुरी को मात कर रही है - राजमहल के सिँहद्वार पर मँगलवाध्य बज रहे हैँ फूल तोरण से हर प्रासाद शोभायमान है -
भरत लाल ने नँदीग्राम से सँदेशा भिजवाया है कि, " श्री राम, जानकी सहित , लखन लाल के साथ अयोध्या पुरी पधार रहे हैँ - बडे बैया लौट आयेँगे -"
इतने विचार से , भरतजी के साथ हर अयोध्यावासी के मानोँ भाग्य के सूर्य का उदय हो रहा है
-पिता की आज्ञा का पालन करते हुए, जन जन के दुख का हरण कर , आज्ञाकारी श्री रामने १४ वर्ष बनवास भोगा
- आज सुमँगल अवसर आया है-- मानोँ मृत शरीर मेँ प्राण लौट आये हैँ!
अयोध्यापुरी मे हर्ष का पारावार उमड पडा है
-कैकेयी महारानी के प्रासाद से लगे एक कक्ष मेँ, मैले कुचले वस्त्र पहने ,
एक वृध्धा, अपने रुखे, अस्त व्यस्त , बिखरे केशोँ को, बार बार हिला रही है -
परछाईँ के बीचसे , झाँकते उसके विस्फरीत नेत्र , टकटकी बाँधे द्वार को देख रहे हैँ - कौन है ये अमँगला रुप लिये स्त्री ?
जो अयोध्या नगरी के मँगल उत्सव के विपरीत दीख रही है ?
- ये है कैकेयी रानी की मुँहलगी , दासी मँथरा !
मँथरा का मतलब है = दुर्बुध्धि ! मँथरा अयोध्या की नागरिक नहीँ थीँ -- परँतु, कैकेयी के साथ कैकय देश से आई थी -
- ब्रह्माजी के कहने पर, माँ सरस्वती ने, मँथरा की मति फेर दी थी -- अयोग्य व्यक्ति की मति कु -समय पर , अक्सर, बदल जाती है
-- मँथरा लोभी, दँभी व पाँखँडी थी - उसीने कैकेयी के कान भरे थे और उकसाया था कि, वह, महाराज दशरथ से, उनके एकमात्र पुत्र भरत लाल के लिये राजगद्दी माँग ले और श्री राम को वनवास दे दीया जाये !

क़ैकेयी भी -- कुबुध्धि के वश हो गईँ - महाराज दशरथ ने उन्हेँ २ वचन माँगने को कहा था जब एक बार , युध्ध भूमि पर कैकेयी ने महाराज की प्राण रक्षा की थी अपने कुशल रथ सँचालन से मूर्छित दशरथजी को वे, शत्रु पक्ष से बचा ,सुरक्षित स्थान पर ले गईँ थीँ - जब होश आया तब महाराज दशरथ ने उन्हेँ २ वचन माँगने को कहा
- उस समय तो कैकेयी ने कुछ माँगा नहीँ था
- कई वर्षोँ पश्चात, भरत के लिये, अयोध्या का राज ~ सिँहासन और राम को वनवास - ये दो वचन मँथरा के उकसाने पर कैकेयी ने माँगे तब, दशरथ जी ने कहा,
" रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जायेँ वरु, वचन न जाई " -
- जब श्री राम, चल निकले, तब दशरथ जी के प्राण पँखेरु उड गए !
माता कौशल्या, माता सुमित्रा को पुत्र वियोग सहना पडा -
- लक्ष्मण जी भी बडे भाई राम जी व भाभी सीता जी की सेवा करने वन गए -
उर्मिला जी बिन कारण वियोगिनी बनीँ - माँडवी , श्रुतकीर्ति, भरत लाल व शत्रुघ्नजी सभी की सेवा करने मेँ दुखी मन से समय बिताने लगे -
-- श्री राम वन गए तभी तो असँख्य मात्रा मेँ राक्षस दल का सँहार हुई -- पापी रावण की महासत्ता का नाश हुआ
- विभीषण को लँका का राज्य मिला -अनेक ऋषियोँ को आश्रम मेँ श्री राम, सीता जी के दर्शन हुए
- १४ वर्ष तक भरत जी तपस्वी बनकर श्री राम की चरण पादुका को सिँहासनारुढ कर, श्री राम नाम से राज्य का भरण पोषण करते रहे -
-- आज पुष्पक विमान से उतर कर श्री राम, सीधे कैकेयी माता के कक्ष की ओर चल पडे
- मँथरा ने देखा तो वह चिल्लाती हुई आयी -
" प्रभु ! मुझ पापिन को कदापि क्षमा ना करेँ !! प्रभु, दँड दीजिये -- मैँने घोर अपराध किया है -- मैँ, ही सर्वनाश का कारण हूँ "
श्री राम: " हे,माता ! पश्चात्ताप की अग्नि से जलकर आप पवित्र हुई ! उठो माँ ! मुझे औरा लक्ष्मण को आशीर्वाद दो ! देखो, जानकी आपकी चरण वँदना कर रही है - मेरे भरत को आशिष दो माँ ! "
पैरोँ पर रोती गिडगिडाती , मँथरा को प्रभु ने अपने कोमल करोँ से उठाया -- बिठलाया, शीतल जल पिलाया -- प्रभु के पावन चरण स्पर्श कर, मँथरा पावन हुई
-- उसकी दुखी आत्मा को पवित्रता मिली
--कैकेयी के पाप भी धुल गए
-- पारस - स्पर्श से विकृत लोहा भी पवित्र स्वर्ण हुआ
-- प्रभु कृपा का यही स्वरुप है -- यही प्रसाद है --
" सब जानत प्रभु, प्रभुता सोई, तदपि कहे बिनु रहा न कोई "

Friday, February 02, 2007

कुब्जा - ७ - भाग - पारस -स्पर्श

कुब्जा :

श्री कृष्ण गोविँद हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेवा

जिह्वै पिबस्वामृत मित दैव, गोविन्द दामोदर माधवेति


दोहा: मिटहईँ पाप प्रपँच सब, अखिल अमँगल भार

लोक सुजस, परलोक सुख, सुमिरत नाम तुम्हार !

अक्रूर के सँग बलभद्र व श्री कृष्ण मथुरापुरी आ पहुँचे -- दोनोँ ने शहर देखने का निर्णय किया और घूमने निकल पडे -


जहाँ कहीँ से भी दोनोँ भाई निकलते, प्रजा उन्हे देखती रह जाती -- बलराम गोरे तो कृष्ण श्याम वर्ण के !


मथुरा के हाट बाजार मेँ से गुजरे तो लोग श्री कृष्ण का मनोहारी रुप देखकर मँत्रमुग्ध हो गये !


टहलते हुए, अब दोनोँ मथुरा के राजा कँस के महल के निकट आये - देखा तो मार्ग मेँ एक स्त्री जिसे पीठ मेँ कुबड था वह एक स्वर्ण पात्र मेँ अँगराग लिये , हाथोँ से सम्हाले, बडी परेशानी से चलती हुई , जा रही थी -- वह ३ जगहोँ से टेठी थी - उसका नाम था कुब्जा !


वह रुक गई और एक राहगीर से पूछने लगी, " अरे! यह मनोरम रुपधारी लडके कौन हैँ ? इस साँवरे की छटा देखकर तो मैँ अपना भान भूल गई ! "


कृष्ण जो ये सुनकर मुस्कुरा रहे थे, आगे आये और कहा, " " आर्या ! प्रणाम ! कहाँ जा रही हो ? "


कुब्जा: " जा तो रही थी, कँस के अँत:पुर मेँ , यह सुँगधी अँगराग लिये ! परँतु हे नाथ ! अब न जाने क्यूँ मन कर रहा है कि, थोडा तुम्हारे सलोने चेहरे पे मल दूँ !"


कृष्ण: ( ठ्ठाकर हँसते हुए ) " तो लगाओगी मुझे अँगराग ? "


- इतना कहते, कृष्ण समीप आये और कुब्जा की ठोडी को एक ऊँगली से छू लिया


- हमेशा नीचे रहनेवाला कुब्जा का मुख, श्री कृष्ण की एक ऊँगली से उपर उठ गया !


अब कृष्ण फिर हँसे ! और बोले," तुम तो बडी सुँदर हो !


" कुब्जा सकपकाई - झेँपी और कहा, " कौन मैँ ? सुँदर ? न न .."


तभी, श्री कृष्ण के स्पर्श मात्र से, कुब्जा की बरसोँ की कुबड दूर हो गई -


- पलकेँ झपकीँ और सब स्तँभित रह गए !


ये क्या हुआ ? उनके देखते देखते, कुब्जा सर्वाँग सुँदरी ( सारे अँगोँ से सुँदर ) भुवन मोहिनी स्त्री बन गई !


कुब्जा प्रभु के चरणोँ पर गिर पडी


-- बोली, " नाथ ! प्रभु ! मेरे प्रणाम स्वीकार कीजिये ! आप दीनबँधु हो ! अँतर्यामी हो !


"जिस दिन देखी प्रभु सुँदरता तेरी, बाढी अँग अँग , सुँदरता मेरी "


...कुब्जा हर्षातिरेक मेँ दौडी -चिल्लाती हुई, " नगरवासीयोँ देखो ! मैँ अब सुँदर हूँ ! कुब्जा आज से त्रिवक्रा नहीँ रही - मैँ सुँदरी हूँ -- मैँ सुँदरी हूँ "


वह खूब खुश होकर नाचने लगी -- श्री कृष्ण उसका हर्ष देखकर हँसे


-- श्री कृष्ण: " प्रकृति का हर जीव, हर प्राणी सुँदर है ! मुझे सभी प्रिय हैँ मेरे पास आओ - सुँदरता ही सुँदरता है "



प्रभु के मधुर -स्पर्श से कुब्जा रुपवती हुई पारस ने लौह को स्वर्ण बनाया !


" सब जानत प्रभु, प्रभुता सोई, तदपि कहे बिनु रहा न कोई "




शबरी : भाग - -६ - पारस -स्पर्श


शबरी
राम नाम मणि दीप धरूँ जीर्ण देहरी द्वार ,
तुलसी भीतर बाहर हुँ, जो चाहसि उजियार !
माता रामो मत्पिता रामचँद्र , स्वामी रामो मत्सखा रामचँद्र
सर्वस्वँ मे रामचन्द्र दयालु, नान्यँ जाने नैव जाने न जाने
गँधर्व राज चित्रकवच के एक बेटी थी नाम था - मालिनी -- उसने एक शिकारी " कलमासा " से मित्रता कर ली -
उसके गँधर्व पति को बडा क्रोध आया -उसने श्राप दिया ये कहते कि,
" जा ! तू जँगल मेँ रह ! "
मालिनी बहुत रोई गिडगिडाई परँतु सब व्यर्थ !
गँधर्वलोक छोड कर अब उसे पृथ्वी पर आना पडा
-- बियाबान जँगलोँ मेँ भटकेते अब वह मतँगाश्रम मेँ आई
-- वहीँ पर मतँग ऋषिके अन्य शिष्योँ के साथ रहकर वह अपने दिवस बिताने लगी
-- तपस्वीयोँ ने दयावश उसे आशीर्वाद दिया -
हे सन्यासिनी, तुम्हेँ शीघ्र ही ईश्वर दर्शन देँगेँ
- तुम्हेँ अवश्य मुक्ति मिलेगी -- तू तपस्या करती रह!००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००एक एक दिन की बात है -- सुबह से मीठी मीठी बयार चल रही थी
-- पक्षी चहचहाने लगे - पुष्प आज ज्यादा ही सुँगधि फैला रहे थे
- कमल के फूल खिल उठे थे -- वन के प्राणी गर्दन उठा कर किसी की बाट जोह रहे थे
-- और क्योँ ना हो ?
श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ, मतँगाश्रम कि ओर चल पडे थे
-- कई वर्षोँ से " राम राम " रटती सन्यासिनी शबरी , भीलनी , वही मालिनी अब वृध्धा हो चली थी
-- उसका आनँद ह्र्दय मेँ समा नहीँ रहा था जबसे श्री राम के आश्रम आनेकी सूचना उसे मिली थी
- प्रेमवश शबरी सोचने लगी, " मेरे श्री राम, थक कर आवेँगेँ तब इस जँगल मेँ उन्हेँ क्या खिलाऊँगी ? "
बेर की झाडी मेँ उसने कई पके हुए बेर देखे और एक बडे पत्ते का दोना बनाकर , बेरोँ को तोडने लगी
-- फिर विचार आया, " अरे ! कहीँ ये खट्टे तो नहीँ ? ला, चख लूँ ! मैँ मेरे राम को मीठे बेर ही खिलाऊँगी "
-- अचानक उस वृध्धा की सारी मनोकामना पूर्ण करते हुए , दो भ्राता राम व लक्ष्मण पगडँडीयोँ से चलते हुए समक्ष खडे हो गए !
भोली शबरी, प्रेमवश अपने झूठे बेर , प्रभु को चख चख कर खिलाने लगी ! ईश्वर सदा प्रेम व भक्ति के प्यासे होते हैँ
-- श्री राम को, शबरी माँ के भोले चेहरे मेँ व झूठे बेरोँ मेँ माता जगदँबा की झाँकी हुई जिनका प्रसाद उन्होँने स्वीकार किया -
- शबरी ने राम लक्षमण को बतलाया कि पँपा सरोवर के पास ऋष्यमूकपर्वत है वहीँ पर वानर राज सुग्रीव रहते हैँ -- उनसे आपकी भेँट होगी -
शबरी : " प्रभु, मैँ अज्ञानी आगे का मार्ग क्या बताऊँ ? आप अँतर्यामी हो - हर प्राणी के ह्र्दय की बात जानते हो
- मुझ पर कृपा कर "नवधा भक्ति " समझाइये " प्रभु ने चरण छू रही शबरी को उठा लिया -
स्वयँ झुके
- नवधा भक्ति का ज्ञान पाकर शबरी मुक्त हुईँ
-- स्वर्ग की ओर बढती शबरी को आकाश मार्ग मेँ उसका पति, गँधर्व वित्तिहोत्र लेने आया
- अब शबरी / मालिनी स्वर्गलोक को चल पडी--
" सब जानत प्रभु प्रभुता सोई, तदपि कहे बिनु रहा न कोई "

" रेणुका "-- भाग ५ -- पारस - स्पर्श


रेणुका

तुमरी कृपा तुम दियो जनाई जो जानत सोँ तुम हि हौँ जाई !

ज्ञान अवधेश गृह गेहिनी भक्ति शुभ तत्र अवतार भू भार हर्ता
भक्त सँकट पितु वाक्य कृतगमन किय गहन वैदेहि भर्ता

रुचिक तथा सत्यवती के पुत्र हुए जामद्ग्नि जिनका ब्याह ईश्वाकु वँशीय रेणुका से हुआ
- नर्मदा नदी के तीर पर रेणुका व जामदग्नि ने गृहस्थी बसा ली
उसी काल, महा विष्णु ने धरती का भार हरने के लिये, उनके पुत्र " परशुराम " के रुप मेँ जन्म लिया --
वे हमेशा अपने पास "परशु " या " फरसा " रखते थे --
जब परशुराम बडे हो गये तब श्री विष्णु का धनुष " विष्णु चाप " भी उनके पास था .
एक बार आश्रम को झाड बुहार कर , रेणुका नर्मदा से जल भरने गईँ -घडे मेँ पानी भरते रेणुकाने देखा कि, नर्मदा के शीतल जल मेँ "चित्ररथ " नामका गँधर्व तथा "कार्तववीर अर्जुन " अपनी पत्नियोँ समेत जल - विहार मेँ मग्न हैँ !
रेणुका समय भूलकर, बहुत देर तक उनका जल मेँ खेल करना देखतीँ रहीँ
-सो, उन्हेँ आश्रम पहुँचते देर हो गई
- इसी कारण जामद्ग्नि ऋषि कुपित हुए !
उन्होँने अपने पाँच -५ , पुत्रोँ को बुलाकर कडक कर आदेश दिया -

जामदग्न : " हे पुत्रोँ ! तुमनेँ से कौन मेरी आज्ञा का पालन करेगा ? मैँ आज्ञा देता हूँ - तुम अपनी माता का शिरच्छेद करो !"
ये सुनते ही, उनके चार -४ पुत्र हडबडा के दूर चले गए
- परँतु परशुराम ने बिना हिचके पिता की आज्ञा का पालन करते हुए रेणुका माता का सर फरसे से काट डाला - परँतु ये नीँदनीय व धृणास्पद कर्म करने के बाद परशुराम बेहोश हो गये -

-जामदग्नि : मेरे चार पुत्रोँ , जाओ मैँ तुम्हेँ " बनबासी " बनकर रहने का श्राप देता हूँ तुमने मेरी आज्ञा का पालन नहीँ किया तुम चारोँ को पिता पर श्र्ध्धा नहीँ मेरे परशुराम की भक्ति पूर्ण है ! बेटा परशु, आँखेँ खोल ! बोल तुझे क्या वरदान दूँ ? "
-परशुराम : " हे दयालु पिता ! मैँने कर्तव्यपालन किया - अब, कृपा कर आप अपने तपोबल से मेरी माता को जीवन दान देँ यही माँगता हूँ !"
- जामदग्नि : " अस्तु ! धन्य परशुराम ! "
" रेणुका, उठो ! "
और जामदग्नि के अपने कमँडलु से जल छिडकते ही रेणुका जीवित हुईँ !
माता और प्रभु रुप लिये पुत्र गले मिल गये
- पारस - स्पर्श से लोहा सोना बना -- रेणुका की आत्मा कँचन बन गई

-- " सब जानत प्रभु, प्रभुता सोई तदपि कहे बिनु रहा न कोई "

Thursday, February 01, 2007

" गणिका "-- भाग ४ - पारस -स्पर्श


" मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुबीर

अस बिचारि रघुवँश मणि हरहु बिषम भव पीर ! "


समय था सतयुग!
धर्म और सत्य गाय के चार पग पर सँतुलन साधे स्थिर खडा था सत्य के समाँतर ही धर्म था !
किँतु समाज एक ऐसी व्यस्था है जहाँ अच्छाई और बुराई दोनोँ हमेशा साथ साथ रहते आये हैँ
- तभी तो जब अमृत - मँथन हुआ उसी के साथ हलाहल विष भी निकल आया था
- सतयुग की कथा है जहाँ एक शहर मेँ " परशु" नामक वैश्य बनिया रहता था - उसकी पत्नी का नाम था " जीवन्ती " मनुष्य के कर्म ही उसे नाना विध दुख व व्याधि ( बीमारी ) देते हैँ - सो परशु वैश्य को भरी जवानी मेँ ही दमे का रोग लग गया ! पत्नी जीवन्ती ने पति की कडी सेवा की - वैध्यराज ने भी उपचार मेँ कोई कसर ना छोडी ! परँतु वैध्य की चिकित्सा और पत्नी की सेवा भी परशु को बचा न पाई !


जीवन्ती रोज अपने पालतू सुग्गे के पीँजरे के पास खडे खडे , रोया करती थी ! खूब रोई धोई ! पर होनी को कौन टाल सका है ? :-(


" राम राम " करते करते उस दुखिया के दिन बीतने लगे

- पति के निधन पर, कुबुध्धि से प्रेरित जीवन्ती ने, लाचार होकर,

आजीविका का साधन अपनाया वो भी कैसा ! वैश्यावृति का !


अपने पालतू तोते से जीवन्ती पुत्र की तरह प्रेम करती थी - प्रत्येक सुबह स्नान, पूजा कर वह, तोते को सीखलाती ,

" बोल बेटा, " राम, राम "


.कभी गाती भी,

" पढो रे पोपट राजा राम राम , बोलो रे पोपट राजा राम राम "


अपने जीवन मेँ दुष्कर्म करने पर भी बस, हर दिन "राम नाम " का पाठ करने से जीवन्ती की आत्मा को मुक्ति मिली वह सँसार सागर तर गई


- ये कथा बाबा तुलसीदास की " गणिका " की है


--- बोलो " राम राम राम राजा राम राम राम "

अजामिल - भाग ३ - तृतीय (" पारस -स्पर्श" )


बाबाजी ने राम चरित मानस मेँ एक जगह गाया है कि,

" गणिका अजामिल व्याध गीध गजादि खल तारे घना "

-- तो चलिये,

नारी पात्रोँ की कथाओँ मेँ हम एक पुरुष "अजामिल " की कथा से परिचित हो लेँ ...

यह अजामिल कौन था ?

तो सुनिये, वह एक ब्राह्मण पुत्र था -

अजामिल के पिता ने उसे जँगल ,समिधा मेँ उपयोगी, लकडी काट कर लाने के लिये भेजा -

वहीँ जँगल मेँ उसने एक बडी सुँदर शूद्र स्त्री देखी

- उसे देखते ही वह अपना सब कुछ भूलकर, जँगल मेँ अपनी गृहस्थी बसाकर रहने लगा !

उसे कई बालक हुए --

पुराने ब्राह्मण सँस्कार तो थे ही, सो बडे बेटे का नाम उसने "नारायण" रख दीया - वर्ष बीतते गये अजामिल ८७ वर्ष का बूढा हुआ

- यमदूत एक दिन उसकी आयु पूरी हुई तो सामने आये

- तब घबरा कर, अजामिल जोर जोर से अपने पुत्र को आवाज देने लगा

-" नारायण ...नारायण .." वो चिल्लाया ..

अब क्या था, परम दयालु ईश्वर श्री हरि, नारायण वहाँ उसकी आर्त पुकार सुनकर प्रकट हो गए !

महाविष्णु की एक जबर्दस्त हुँकार सुनकर सारे यमदूत भाग खडे हुए !

अब अजामिल भगवान के चरणोँ पे गिर पडा !

प्रभु का नाम स्मरण व स्पर्श " पारस -स्पर्श" साबित हुआ

- अजामिल को सँसार से मुक्ति मिली -
अजामिल को सँसार असार लगा उसके मनमेँ विरक्त्ति आई

- गँगा नदी के तट पर, अनेक वर्ष तपस्या करने के बाद, अजामिल ने विष्णु पद पाया

-कलियुग मेँ एक ही औषधि है, अपने इष्ट के नाम का बार बार स्मरण करो !

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई,

तदपि कहे बिन रहा न कोई !

राम सीया राम जय जय राम सीया राम


(अगले भाग मेँ एक स्त्री कथा के साथ , फिर , हाजिर रहूँगी _

भूमिका -- २ --द्वीतिय ( "पारस -स्पर्श" )


" सब जानत प्रभु प्रभुता सोई, तदपि कहे बिन रहा न कोई "

"राम सीया राम जय जय राम सीया राम "


भारतभूमि मेँ "मनुस्मृति " ने भले ही गर्व से कहा कि," जिस जगह स्त्री की पूजा होती है वहीँ पर स्वर्ग है " परँतु समाज मेँ वास्तव मेँ कुछ और ही वास्तविकता दीखाई पडती रही है -आर्य विदुषी नारीयाँ अपना अनोखा स्थान रखती हैँ परँतु इनके सामने ये तथ्य भी उजागर है कि, भारतीय दर्शन व वाङमय , नारी को " ईश्वर -प्राप्ति -साधना" क्रिया मेँ हमेशा दूसरा दर्जा देता आया है --

पुराणोँ तथा इतिहास के पन्नोँ को पलटते , हम कई ऐसे नारी पात्रोँ से मिलते हैँ जो सती या पवित्रा न थीँ बल्कि, पतिता या पापिन थीँ -- किँतु ईश्वर तो हर जीव से, एक सा प्रेम करते हैँ
-हर आत्मा के उत्थान मेँ वे ही निमित्त बनते हैँ -
ऐसी नारी ही प्रभु से विनती करती है कि,

" तुम पापिन के परम सनेही, दो मुक्ति का वरदान !

हो श्यामा , अँगना पधारो राम ! "


कई ऐसे उदाहरण हैँ जहाँ प्रभु "पारस" बनकर कुछ चुने हुए नारी पात्रोँ के जीवन मेँ आये और उन्हेँ लोहे से सुवर्ण बना दीया !
प्रभु के पावन स्पर्श से वे सँसार सागर तर गईँ !
आत्मा की गति, प्रगति तथा मुक्ति के लिये परामात्मा सतत प्रयत्नशील रहते हैँ -सूर्य यही चाहता है कि, उसके तेज पूँजसे बिछुडी किरणेँ फिर उसी के तेज मेँ आकर समा जायेँ -


भारतीय धर्म यही कहता है कि, स्त्री पातिव्रत धर्म का पालन करती हुई स्वर्ग या मुक्ति दोनोँ पा सकतीँ हैँ
-अरुँधती, तारा, मँदोदरी, दमँयती, सीता सती थीँ -
पर आपके सामने ऐसे स्त्री पात्र आयेँगे जिन्हेँ इतना आदरणीय स्थान नहीँ मिला --
फिर भी प्रभु के पावन गँगा जल सद्रश्य स्पर्श से उनके सारे पाप धुल गये और उन्हेँ सद्`गति मिली
-भारतीय दर्शन आत्मा के पुनर्जन्म मेँ, आत्मा की अमरता मेँ द्रढ आस्था रखता है
- कर्म के प्रभाव से कोई अछूता नहीँ किँतु सँत समागम से अपवित्र पात्र भी पवित्र हो जाता है

-तब प्रभु के सामीप्य का तो कहना ही क्या ?

अस्तु : ~~~

" समय समय बलवान है, नहीँ मनुज बलवान,
काबे गोपियाँ लूँट लीँ, ऐ ही अर्जुन ऐ ही बाण! "