उडान
गीत बनकर गूँजते हैँ, भावोँ के उडते पाख!
कोमल किसलय, मधुकर गुँजन,सर्जन के हैँ साख!
मोहभरी, मधुगूँज उठ रही,कोयल कूक रही होगी-
प्यासी फिरती है, गाती रहती है,कब उसकी प्यास बुझेगी?
कब मक्का सी पीली धूप,हरी अँबियोँ से खेलेगी?
कब नीले जल मेँ तैरती मछलियाँ, अपना पथ भूलेँगीँ ?
क्या पानी मेँ भी पथ बनते होँगेँ ?होते होँगे,बँदनवार ?
क्या कोयल भी उडती होगी,निश्चिन्त गगन पथ निहार ?
मानव भी छोड धरातल, उपर उठना चाहता है -
तब ना होँगे नक्शे कोई, ना होँगे कोई और नियम !
कवि की कल्पना के पाँख उडु उडु की रट करते हैँ!
दूर जाने को प्राण, अकुलाये से रहते हैँ
हैँ बटोही, व्याघ्र, राह मेँ घेरके बैठे जो पथ -
ना चाहते वो किसी का भी भला न कभी !
याद कर नीले गगन को, भर ले श्वास उठ जा,
उडता जा, "मन -पँखी" अकुलाते तेरे प्राण!
भूल जा उस पेड को, जो था बसेरा तेरा, कल को,
भूल जा , उस चमनको जहाँ बसाया था तूने डेरा -
ना डर, ना याद कर, ना, नुकीले तीर को !
जो चढाया ब्याघने,खीँचे, धनुष के बीच!
सन्न्` से उड जा !छूटेगा तीर भी नुकीला -
गीत तेरा फैल जायेगा,धरा पर गूँजता,
तेरे ही गर्म रक्त के साथ, बह जायेगा !
एक अँतिम गीत ही बस तेरी याद होगी !
याद कर उस गीत को, उठेगी टीस मेरी !
"मन -पँछी "तेरे ह्रदय के भाव कोमल,
हैँ कोमल भावनाएँ, है याद तेरी, विरह तेरा,
आज भी, नीलाकाश मेँ, फैला हुआ अक्ष्क्षुण !
-- लावण्या